Monday, August 31, 2020

जाति-प्रथा और श्रम-विभाजन / मेरी कल्पना का आदर्श समाज - भीमराव अंबेडकर

 

जाति-प्रथा और श्रम-विभाजन

मेरी कल्पना का आदर्श समाज

 

भीमराव अंबेडकर

 

पाठ के बारे में : अंबेडकर ने ये दोनों लेख 1936 में एक भाषण के रूप में लिखे थे , किन्तु बाद में पुस्तक ‘एनीहिलेशन आफ़ कास्ट’ में शामिल कर दिए गए। जाति-प्रथा और श्रम विभाजन में लेखक ने मज़बूत तर्क देकर यह सिद्ध किया है कि जाति प्रथा को श्रम-विभाजन के रूप में स्वीकार नहीं किया जा  सकता। मेरी कल्पना का आदर्श समाज में लेखक ने बताया है कि वे कैसे समाज का सपना देखते हैं।

आज के जाति-मज़हब पर आधारित विषाक्त सामाजिक और राजनैतिक माहौल में इन दोनों लेखों की प्रासंगिकता ज्यादा है।

_________________________________________________________

 


जाति-प्रथा और श्रम-विभाजन

सारांश

यह अफ़सोस की बात है कि आज भी जाति-प्रथा को बढ़ावा देनेवाले लोग मौज़ूद हैं। वे कहते हैं कि कार्य-कुशलता के लिए श्रम-विभाजन ज़रूरी है और जाति-प्रथा भी श्रम-विभाजन का ही रूप है।

पर अंबेडकर जाति-प्रथा को श्रम विभाजन के रूप में अस्वीकार करते हैं और कहते हैं-

1.जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन भी करती है और विभिन्न वर्गों को ऊंच-नीच भी घोषित करती है। ऐसा संसार के किसी समाज में नहीं पाया जाता है।

2. यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। व्यक्ति अपने कार्य या पेशे का स्वयं चुनाव नहीं करता है।

3. इसमें व्यक्ति के प्रशिक्षण अथवा निजी क्षमता का विचार किए बिना और माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार गर्भ-धारण के समय से ही उसका पेशा निर्धारित हो जाता है।

4.व्यक्ति जीवन-भर के लिए एक पेशे से बंध जाता है। पर जाति-प्रथा के कारण वह अपना पेशा नहीं बदल सकता है। कई बार उसके भूखों मरने की नौबत आ जाती है।

5. आधुनिक युग में उद्योग-धंधों में तकनीक बदलती है। जैसे-कुम्हार का काम आजकल लगभग बंद है। इस प्रकार जाति-प्रथा बेरोज़गारी का भी एक बड़ा कारण है।

5. काम में अरुचि के कारण लोग टालू काम करते हैं। इस प्रकार आर्थिक दृष्टि से भी जाति-प्रथा हानिकारक है।

ये सब जाति-प्रथा के खेदजनक परिणाम हैं।

 

***

 

मेरी कल्पना का आदर्श समाज

सारांश

 

अम्बेडकर के अनुसार, उनकी कल्पना का आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता और भ्रातृता पर आधारित होगा।

स्वतंत्रता, समता और भ्रातृता-इन तीन आदर्शों को फ़्रांसीसी क्रांति के नारे में शामिल किया गया था।

भ्रातृता अर्थात भाईचारे कोई कैसे विरोध कर सकता है!

किसी भी समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए कि जिससे कोई भी ज़रूरी परिवर्तन समाज  के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच सके।

सबका हित होना चाहिए और सबका हिस्सा होना चाहिए और सबको सामाजिक जीवन में अबाध सम्पर्क के साधन और अवसर उपलब्ध होने चाहिए। इसी का नाम लोकतंत्र है।

लोकतंत्र केवल शासन का तरीका नहीं है, यह सामूहिक जीवन जीने का तरीका है और समाज के अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है।

स्वतंत्रता का कोई कैसे विरोध कर सकता है!

गमन और आगमन की स्वतंत्रता, जीवन और शारीरिक सुरक्षा की स्वतंत्रता का तो कोई विरोध नहीं कर सकता। इसी प्रकार सम्पत्ति का अधिकार, व्यावसायिक औजार और अन्य वस्तुएं रखने के अधिकार पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती।

अत: यदि कोई मनुष्य अपनी शक्ति और क्षमता का प्रयोग कर सकता हो तो इसकी भी उसे क्यों न स्वतंत्रता होनी चाहिए!

व्यक्ति अपनी शक्ति, क्षमता, रुचि से मनचाहा कार्य कर सके-जातिप्रथा का समर्थन करने वाले उसे यह स्वतंत्रता देने के लिए तैयार नहीं होंगे। इसका अर्थ उसे दासता में जकड़ कर रखना होगा!

दासता केवल कानूनी नहीं होती है, बल्कि जब कुछ लोगों को दूसरों द्वारा निर्धारित कार्य-व्यवहार करने के लिए विवश किया जाता है तो यह भी दासता ही है। ऐसी स्थिति कानूनी दासता न होने पर भी पाई जा सकती है। जाति-प्रथा में यह स्थिति पाई जा सकती है क्योंकि व्यक्ति को अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं।

समता पर भी विचार करना चाहिए।

समता का विरोध करने वाले कह सकते हैं कि क्षमताओं की दृष्टि से सभी मनुष्य बराबर नहीं होते हैं। एक तरह से उनका कहना सही भी है। पर क्षमता आती कहां से है!

मनुष्य की क्षमता तीन बातों पर निर्भर होती है-

1.     शारीरिक वंश परम्परा (व्यक्ति को माता-पिता से कैसे ‘जींस’ मिले हैं)

2.     सामाजिक उत्तराधिकार (पढ़ाई-लिखाई, वैज्ञानिकता, माता-पिता की कल्याण-कामना, सभ्यता और संस्कृति-जिनके कारण लोग वनों और गांवों में रहनेवालों की अपेक्षा विशिष्ट हो जाते हैं)

3.     मनुष्य के अपने प्रयत्न

इन तीन दृष्टियों से मनुष्य बराबर नहीं होते हैं । तो क्या समाज को भी उनके साथ असमानता का व्यवहार करना चाहिए!

एक उदाहरण-एक परिवार में सभी बच्चे बराबर नहीं होते, तो क्या कमज़ोर बच्चे का तिरस्कार करना चाहिए!

असमान प्रयत्न के कारण असमान व्यवहार अनुचित नहीं है। पर प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने का प्रोत्साहन भी दिया जाना चाहिए, अन्यथा वे लोग बाज़ी मार ले जाएंगे जिन्हें उत्तम कुल, शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक सम्पदा, व्यावसायिक प्रतिष्ठा का लाभ पहले से मिला है।

इस प्रकार समता वास्तविक संसार में एक अर्थ में असम्भव होते हुए भी नियामक सिद्धांत है। राजनीतिज्ञ आम  जनता से जब बात-व्यवहार करता है तो वह मान लेता है कि सब बराबर हैं। एक उदाहरण-कक्षा में में शिक्षक सभी आत्र-छात्राओं को बराबर मानकर ही व्यवहार करता है। इस प्रकार एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता पड़ती है।

आवश्यकता और क्षमता की दृष्टि से भिन्न-भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक और उचित क्यों न हो, मानवता की दृष्टि से समाज को दो श्रेणियों में नहीं बांटा जा सकता।

इस प्रकार समता कल्पना की वस्तु है, फ़िर भी एक नियामक सिद्धांत है। इस सिद्धांत का व्यवहार किया जाता है।

प्रश्न अभ्यास

1.    अंबेडकर जाति-प्रथा को श्रम-विभाजन का रूप किन आधारों पर अस्वीकार करते हैं?

2.    अंबेडकर के अनुसार ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?

3.    अंबेडकर समानता को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने की बात क्यों करते हैं? इसके पीछे वे क्या तर्क देते हैं?

4.    अंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि से जाति-प्रथा का उन्मूलन चाहा है तथा कहा है कि भौतिक स्थितियां और सुविधाएं  सबको उपलब्ध होने से भावनात्मक समत्व की स्थापना हो सकेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? समझाइए।

5.    लेखक ने ‘भ्रातृता’ शब्द का प्रयोग किया है। क्या इसमें स्त्रियां शामिल हैं? आप ‘भ्रातृता’ शब्द से कहां तक सहमत हैं? क्या इसके बदले में आप कोई ज्यादा उचित शब्द सुझा सकते हैं?

6.    ‘जाति-प्रथा का विष’ इस विषय पर 150 शब्दों में एक सारगर्भित अनुच्छेद लिखिए।


____________________________________________

राजेश प्रसाद                   व्हाट्स ऐप 9407040108               psdrajesh@gmail.com

No comments:

मियां नसीरुद्दीन -कृष्णा सोबती (XI )

  मियां नसीरुद्दीन कृष्णा सोबती   _____________________________________________________   ‘मियां नसीरुद्दीन’ एक संस्मरणात्मक शब्दच...