Wednesday, March 19, 2008

छोटी-छोटी कविता

छोटी-छोटी कविता

चान्द है सुन्दर मगर कब पास है
गीत है लेकिन गले का दास है
है सुरा मधुमय मगर उपवास है
अस्तित्व तेरा भी यू ही अहसास है..
प्रेम क्या है, ज़िन्दगी का एक सम्मोहक सपन है
है सफल तो वासना है, असफल है तो रुदन है…
जी चाहता है दोस्त हम तुमसे न कुछ कहे
मगर वह सज़ा क्या जिसके लिए तैयार तुम रहो !
जानते है तुम समन्दर बन के न हमसे मिलोगे
तपते रेगिस्तान मे लेकिन सफ़र सुहाना है…
धूप रेगिस्तान-सी पा फूल उपवन मे जले
मूर्ख है वे जो सुकोमल भावनाओ मे पले
हो हृदय पाषाण के, तन भी लोहे के बने
ताकि तपकर ताप मे भी विविध सान्चो मे ढले…

Sunday, March 16, 2008

हिज़डा

कहानी


आज का दिन

वह बस से उतरा और दादर स्टेशन की ओर चल पडा। उसके आगे कूल्हे हिलाती युवतियां जा रही थीं। वह भी उनमें से एक होता तो क्या बात थी,उसने सोचा, तब उसके हाव-भाव ज़्यादा स्त्रैण होते, उसकी कमनीयता ज़्यादा मोहक होती । कभी-कभी जो उसे दुत्कार देते हैं, वे ही उसकी निकटता की कामना करते। अफ़सोस कि वह युवती नहीं बन सकता था। वह हिजड़ा था ।

पान की दूकान के सामने रुककर उसने थैला अपने पैरों के पास रखा और पान बनाने के लिए कहकर दूकान के शीशे में अपनी छवि निहारने लगा। दाहिनी आंख का काजल थोड़ा फ़ैल गया था, जिसे उसने आंचल से पोंछा, होठों को परस्पर चिपकाकर लिपस्टिक की परत को सम किया, फ़िर दाहिने जबड़े में पान दबाकर एक नई दृष्टि से खुद को देखा। अक्सर दिखाई पड़ने वाले हिजड़ों की अपेक्षा वह अधिक सुंदर लग रहा था। उसकी साड़ी साफ़-सुथरी थी। अर्द्धपारदर्शी ब्लाउज़ से रंग-बिरंगी कढ़ाई वाली ब्रा झलक रही थी। दुबले-पतले शरीर के अनुपात में उसके स्तनों के उभार आकर्षक थे, बिलकुल ज़वान औरतों के स्तनों की तरह। चेहरे पर भी नमकीन चमक थी। उसे पीछे से देखकर कोई भी पुरुष उसके स्त्री होने के भ्रम में पड़कर आकृष्ट हो सकता था, बस कमर में थोड़ी लचक पैदा करनी पडती...बहुत बढ़िया, उसने सोचा, और यह क्या ! अचानक उसकी दृष्टि अपनी छवि से भटककर शीशे में प्रतिबिंबित सड़क के दूसरे किनारे पर पड़ी तो वह चिहुंक गया । उस पार से तीन हिजडे़ अपना थैला-ढोलक संभाले उसी की तरफ़ चले आ रहे थे । तेज़ चलने की कोशिश में उन्होंने लगभग घुटनों तक साड़ियां उठा रखी थीं।वह घबरा गया, फ़िर अपना थैला उठाकर सड़क पर बहती भीड़ को चीरता हुआ लगभग दौड़ता चला गया । वह आतंकित था और उन तीनों से दूर चला जाना चाहता था। पीछे उसने उनका चिल्लाना सुना। घबराहट में वह उसी बस-स्टाप पर पहुंच गया था, जहां कुछ देर पहले ही बस से उतरा था । चलने के लिए तैयार खड़ी बस में वह चढ़ गया और पिछली खिड़की से बाहर झांककर देखा तो उन तीनों की एक झलक मिली ।

-‘भैया, देखो हिजड़ा !’ एक छोटी बच्ची सडक पर चिल्लाई ।
-‘वह हिजड़ा नहीं, हिजड़ा है । देखा नहीं, बिलकुल आंटी जैसी लग रही थी ।’ भाई ने किसी आंटी से उसकी साम्यता की कल्पना करते हुए समझाने के अन्दाज़ में कहा ।
-‘चुप्प !’ औरत ने चीखकर बच्चों को चुप कराया । उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया था।

बस तीस-पैंतीस मीटर तक आगे बढ़ गयी तो जैसे उसकी जान में जान आई ।
पिछले दो महीनों के दौरान हिजड़ों के उस समूह से यह उसका दूसरा टकराव था । पहला टकराव पिछले महीने कल्याण स्टेशन पर तब हुआ था, जब वह ट्रेन में झाडू़ लगाने वाले बच्चों के साथ सीढ़ियों पर बैठा था और ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। वे तीनों जाने कब और कहां से एकाएक प्रकट हो गए थे । वे उटपटांग सवाल पूछ रहे थे और उसके लिए बहू, खसम, नानी, मौसी जैसे शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। पुरुषों के अन्दाज़ में वे उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए छेड़-छाड़ कर रहे थे । खींच-तान में उसका थैला सीढ़ियों से लुढ़ककर प्लेटफ़ार्म पर जा गिरा था। उसकी साड़ी की तारीफ़ करते हुए जब एक हिजडे़ ने अन्दर तक हाथ डाल दिया था तो वह इतनी ऊंची आवाज़ में चीखा था कि तीनों हतप्रभ रह गए थे और बच्चे डरकर अपना-अपना झाडू लेकर दूर हट गए थे । जब तक वहां कुछ लोग जमा होते, वह उन तीनों के चंगुल से छूटकर तेज़ी से अपने थैले की ओर लपका था और पटरी फ़लांगते हुए स्टेशन से बाहर निकल गया था । पीछे तीनों हाथ नचा-नचाकर तालियां बजा रहे थे और हंस रहे थे.
आज भी वह बाल-बाल बचा था ।

वह लोकल ट्रेन से कुर्ला पहुंचा, जहां से यू.पी.-बिहार की दिशा में जाने वाली ट्रेन पकड़ी जा सकती थी। उसका कोई निश्चित गंतव्य नहीं था । शाम के चार-साढे़-चार बजे तक ट्रेन जहां तक का सफ़र तय करती, बस वहीं तक जाना था और रात के दस-साढे़-दस बजे तक अपनी झोपड़-पट्टी में वापस लौट आना था। पिछले दिनों के अनुभवों ने उसे बता दिया था कि मुम्बई की शिराओं में बहने वाला खून यू.पी.-बिहार का है और हिजडों-भिखारियों को देने वालों में ज्यादा संख्या भी वहीं के निवासियों की होती है। फ़िर उस रूट पर चलने वाली ट्रेनों में वहां के लोग ज़्यादा नहीं होंगे तो क्या गुजराती-मराठी होंगे !
दरभंगा एक्सप्रेस की जनरल बोगी के शौचालय के पास कुछ देर रुककर वह मुसाफ़िरों को परखता रहा, फ़िर जब ट्रेन आगे सरकी तो थैले से छोटी-सी ढोलक निकालकर गले में लटका ली और कारीडोर में आकर बजा-बजा नाचने-गाने लगा। खिड़की के पास गोद में फ़िल्मी पत्रिका रखे बैठे युवक की आंखों में अपने प्रति दिलचस्पी के भाव देखकर हिजडे़ ने निचला होंठ चुभलाकर एक आंख दबाई। युवक हंस पड़ा। हिजडे़ ने इठलाते हुए कमर लचकाई और ताली बजाकर अपनी हथेली उसके सामने फ़ैला दी-‘अब तड़पा मत मेरे राजा, दे दे ।’ युवक ने अप्रसन्नता से उसे देखा, फ़िर तिरस्कार करता हुआ खिड़की से बाहर झांकने लगा । पीछे सरकते प्लेटफ़ार्म पर दो सुंदर और ज़वान आधुनिकाएं ट्रेन के साथ-साथ तेज़ी से चलने की कोशिश कर रही थीं और आगे जा चुकी किसी बोगी को इंगित करके विदाई की मुद्रा में हाथ हिला रही थीं । उनकी आंखों में विछोह के आंसू और होठों पर विदाई देती नकली मुस्कान थी। युवक उन्हें ही देख रहा था । पलभर के लिए हिजडे़ का ध्यान भी उनकी ओर चला गया, फ़िर युवक का कंधा छूकर दीनता से बोला-‘दे न, सेठ ।’
-‘हट, नईं तो एक देवेगा कान के नीचे।’युवक ने भड़ककर दांत पीसते हुए कहा, फ़िर बाहर झांकने लगा।
-‘नाराज़ क्यूं हो रहेला, सेठ । कमा के मुलुक जाता है। कुछ दान-पुन्न तो कर।’ हिजडे़ ने सकपकाहट और निराशा मिश्रित स्वर में कहा और आगे बढ़ गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था। हिजड़ा कहीं औरत की बराबरी कर सकता है !
ऊपर की सीट पर पीठ के बल लेटा अधेड़ हथेली पर ठुड्डी टिकाए हिजडे़ को देख रहा था । जब हिज़डे़ ने उसकी ओर देखा तो उसने आंखें बंद कर लीं। उसने ताली बजाकर उसे छुआ, जैसे डरते-डरते जगा रहा हो ।
-‘क्या है, बे?’ अधेड़ ने डपट दिया।
-‘अब्बी सोएंगा तो रात में क्या करेंगा, सेठ !’ वह दांत निपोरकर बोला। अधेड़ ने करवट बदलकर आंखें बन्द कर लीं। निचली सीट पर बैठे बारह-तेरह वर्षीय लड़के के चेहरे पर उत्सुकताभरी मुस्कान थी। हिज़डे़ के मन में अचानक ही स्नेह जाग उठा। लड़के के गाल पर धीरे से चुटकी काटकर बोला-‘खूब पढ़ने-लिखने का मुन्ने और बड़ा आदमी बनने का।’ लडके का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसने असहाय दृष्टि से पिता की ओर देखा। क्षुब्ध पिता ने हिजडे़ को धक्का देकर कहा-‘माफ़ कर, जा यहां से’ और दो रुपए का सिक्का थमा दिया।
यही उसकी दिनचर्या थी।
आधे घंटे बाद वह स्लीपर क्लास बोगी में था और शाम को पांच बजे मनमाड स्टेशन की सीढ़ियों पर दो कुत्तों और एक पगली औरत के पास बैठा अपनी कमाई गिन रहा था। उसने कम-से-कम तीन सौ लोगों के सामने हाथ पसारे थे, गीत गाए थे, तालियां बजाकर ठुमके लगाए थे। ज़्यादातर लोगों ने उसकी तरफ़ ध्यान तक नहीं दिया था। तीस-चालीस लोगों ने एक रुपए से दस रुपए तक दिए थे। चार-पांच लोगों ने अश्लील शब्द कहते हुए इशारे किए थे। दो-तीन लोगों ने नितंबों और स्तनों पर हाथ फेरा था। एक आदमी ने ‘बीस रुपए ले लेना’ कहकर दस मिनट के लिए टायलेट में चलने के लिए कहा था। अपनी बीवी के साथ सफ़र करते एक फ़ौज़ी ने उसे धक्के मारकर बोगी के दरवाज़े तक पहुंचा दिया था। दो पुलिसवालों ने हमेशा की तरह उसकी कमाई में से पचास रुपए साधिकार चूस लिए थे।

रात को दस बजे वह कामायनी एक्सप्रेस से वापस कुर्ला पहुंचा। उस समय तक उसके पास कुल मिलाकर दो सौ पन्द्रह रुपए बचे थे। वहां से लोकल ट्रेन पकड़कर दादर, फ़िर बस से अपनी झोपड़पट्टी में पहुंचा।
सतर्क दृष्टि से चारों तरफ़ देखता हुआ वह अपने झोपडे़ के पीछे से गुज़रती रेलवे-लाइन के पास, नाले के किनारे उगी झाड़ियों में चला गया। अन्धेरे में उसे कोई देखता तो यही समझता कि झोपड़पट्टी की कोई औरत शंका-निवृत्ति के लिए गई होगी।
धूल, धुएं और दुर्गंध से प्रदूषित मुम्बई के आसमान में, इमारतों के ऊपर मटमैला चांद था, बहते नाले की दुर्गंधभरी आवाज़ थी और झोपड़पट्टी से जाने-पहचाने बेवड़ों के चीखने-चिल्लाने, औरतों के लड़ने-झगड़ने और बच्चों के रोने के स्वर यहां झाड़ी तक आ रहे थे। वह साड़ी खोलने लगा।

उसने अपने झोपडे़ की तरफ़ देखा। पिछली दीवार की दरारों से रोशनी की लकीरें निकल रही थीं।–‘सुबह बल्ब बुझाना भूल गया था, शायद।’ उसने सोचा।


गुज़रे हुए पागल दिन
यूं तो जो कुछ वह कर रहा था, उसमें कदम-कदम पर समस्याएं थीं, पर वास्तविक समस्या उसके अकेले होने की थी। उसने देखा था कि हिजड़ों के छोटे-से-छोटे समूह में भी कम-से-कम दो हिजडे़ तो ज़रूर होते थे। दूसरी समस्या स्वयं हिजडे़ थे, जिन्हें वह दूर से भी देख लेता तो कांप जाता और उसे लगता कि वह उनके घर में सेंध लगा रहा था और पकडे़ जाने पर सिर्फ़ बुरा ही हो सकता था। दो महीने पहले तक उसके सामने स्पष्ट नहीं था कि असली हिजड़ों से कभी आमना-सामना हो जाने पर उसके प्रति उनका व्यवहार कैसा होगा औरे खुद को वह उनके सामने कैसे प्रस्तुत करेगा। उनकी निर्लज्जता के नमूने उसने देखे-सुने थे। वे अश्लीलतम गालियां दे सकते थे, शायद मार-पीट भी कर सकते थे औरे सबसे भीषण बात तो यह होती कि उसके हिजड़त्व पर संदेह होने पर वे बीच सड़क पर या ट्रेन में या प्लेटफ़ार्म पर, कहीं भी उसके कपडे़ खींचकर नंगा करने में संकोच न करते। बाद की घटनाओं ने उसकी आशंका को सही सिद्ध किया था। निश्चित रूप से वे तीनों उसकी असलियत जान चुके थे। ऐसी स्थिति में वह अगर पुलिस के फेरे में पड़ जाता तो कानून की किसी-न-किसी धारा के तहत जेल भी पहुंच सकता था। एक समय मेहनतकश रहे आदमी के लिए अपमान की इससे बड़ी और कोई बात सम्भव न थी। उसे गहराई से महसूस होने लगा कि अपनी किस्मत में यह अपमान वह स्वयं लिख चुका था। आर्थिक तंगी ने पहले तो उसके व्यक्तित्व को हिजड़ा बनाया, फ़िर उसने स्वयं औरतों के कपडे़ पहनकर छद्म हिजड़त्व स्वीकार कर लिया था।
हिजड़ों की कमी थी क्या उसके आस-पास ! जब भी वह अपने आस-पास देखता, हर आदमी में उसे हिजड़ा नज़र आता। औरतें भी उसे हिजड़ा लगतीं...अपनी बीवी भी और दोनों बच्चे भी। हिजड़ा माने मज़बूर, चाहे आदमी हो या औरत या फ़िर बच्चे। उसे लग रहा था कि हिजड़ा एक व्यापक तत्त्व है। कितनी अज़ीब बात थी कि वह अब तक अपनी और अपने आस-पास के लोगों की असलियत से अनजान था।
झोपडे़ में चटाई पर लेटा-लेटा वह बीवी को याद कर रहा था, बच्चों को याद कर रहा था, पूर्वी उत्तर-प्रदेश के अपने उस गांव को याद कर रहा था, जिसे उसने पिछले आठ वर्षों से नहीं देखा था। बीवी-बच्चों को उसने अपने सास-ससुर के पास पहुंचा दिया था, जो नासिक मे कांदा-बटाटा और भाजी की दुकान चलाते थे, जिससे कि वह नई नौकरी का इंतज़ाम कर सके...नौकरी! पिछले आठ वर्षों से लगभग तीन महीने पहले तक वह आटे की जिस चक्की पर काम करता आया था, उसकी आमदनी दिनों-दिन कम होती जा रही थी। बाज़ार में बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियों ने एक किलो और पांच किलो के रंग-बिरंगे पैकटों में आटा बेचना शुरु कर दिया था, जिससे बहुत-से बंधे-बंधाए ग्राहक गेहूं खरीदने और पिसवाने की झंझट से छुटकारा पा गए थे। बाज़ार में आ रहे बदलाव की उसपर भारी मार पडी थी। चक्की की विधवा बूढ़ी मालकिन ने पहले तो उसकी पगार घटा दी थी, फ़िर कोढ़ में खाज़ जैसी स्थिति तब पैदा हो गई जब बु्ढ़िया का भतीजा बुरहानपुर से अपनी बुआ की देख-भाल करने पहुंच गया था। जब भतीजे ने चक्की की बागडोर संभाल ली और बतौर सहायक ग्राहकों के घर से गेहूं लाकर पीसने और पहुंचाने जैसे काम करने लगा तो उसे आसन्न संकट की पदचापें सुनाई पड़ी थीं और उसका मन मुरझाने लगा था। भतीजा जब चक्की के काम में पक्का हो गया तो आठ साल पुराने नौकर को चालू महीने के पन्द्रह दिनों की पगार दयानतदारी से देकर उसकी छुट्टी कर दी गई थी। वह बुढ़िया के सामने गिड़गिड़ाया था, पगार सात सौ रुपए से घटाकर पहले तो छह सौ रुपए, फ़िर पांच सौ रुपए कर देने की भी बात कही थी, पर जब वह नहीं मानी तो पन्द्रह-बीस दिन रुक जाने के लिए भी कहा था, पर बुढ़िया अपने निर्णय पर अडिग रही थी। अब तक वह खडे़ पैर बेरोज़गार होने की कल्पना से बचता आया था। कभी सोचा भी न था कि ‘बेटा-बेटा’ कहकर स्नेह दिखाने वाली बु्ढ़िया एकाएक ही इतनी बेरहम हो जाएगी। साढे़ तीन सौ रुपए लेकर जब वह सड़क पर आया था तो उसके पैरों ने जैसे आगे बढ़ने से इनकार कर दिया था। वह खुद से पूछ रहा था कि अब वह क्या करेगा। आठ साल पहले मुम्बई में कदम रखते ही उसे चक्की चलाने का यही पहला काम मिला था। उस एकरस काम में वह इतना रम गया था कि और कुछ सीख भी नहीं पाया था।
हमेशा की तरह उस दिन भी वह रात को नौ बजे अपने झोपडे़ में पहुंचा था। बीवी झोपडे़ के दरवाज़े के सामने बैठी थी और आलू छीलते हुए पड़ोसन से बातें कर रही थी। अंदर से बच्चों के पढ़ने की आवाज़ें आ रही थीं। बिना कुछ कहे वह अंदर जाकर चटाई पर लेट गया था। वह न तो बीवी को नौकरी छूटने की बात बता पाया था, न रोज़ की तरह बच्चों के प्रति स्वाभाविक स्नेह ही दिखा पाया था। कितनी समझदार थी उसकी पांच साल की बेटी! उसका सिर सहलाते हुए बोली थी-‘सिर में दर्द है क्या, पापा? मम्मी, पापा के सिर में तेल लगा दो।’

आने वाले कुछ दिनों तक वह हमेशा की तरह सुबह सात बजे बीवी के हाथ में बीस रुपए रखकर, पालीथिन के बोरे को काटकर बनाए गए थैले में दो डिब्बों वाला अल्युमोनियम का टिफ़िन-कैरियर लेकर निकलता और पार्क में बैठकर या सड़कों पर भटककर पूरा दिन बिता देता! बेरोज़गारी की यातना से आक्रांत उसका दिमाग जैसे सुन्न हो गया था...अचानक एक विचार से वह चिहुंक उठा--वह फेरीवाला बन जाता तो भी अच्छा होता! मन में इस विचार के आते ही उसे हर जगह मूंगफ़ली, भुने चने, आईस-क्रीम, भेलपूरी, खारी, फ़ल, चाय, रस्क वगैरह बेचते बहुत से फ़ेरीवाले दिखाई पड़ने लगे थे। वह हैरान था कि इतने लोग अब तक कहां छिपे थे। कभी वह उनमें से किसी के पास जा खड़ा होता और ग्राहकों से लेन-देन करते देखता। किसी फ़ेरीवाले से पूछता-‘ये कितने रुपए का सामान है...शाम तक कितना बिक जाएगा...कितना कमा लेते हो...ये टोकरी कहां से खरीदी?’ जब कोई फ़ेरीवाला नाराज़ होकर पूछता-‘लेने का है, क्या?’ तो वह दीन-हीन-सा वहां से हट जाता और दूसरे के पास जा खड़ा होता। उन्हें देखकर वह कल्पना नहीं कर पाता कि एक दिन वह भी उन्हीं की तरह सिर पर सामान रखकर आवाज़ लगाता सड़क-दर-सड़क, मोहल्ला-दर-मोहल्ला, चाल-दर-चाल, पार्क-दर-पार्क, पटरी-दर-पटरी भटकेगा। अनजाने में एक गहरी निराशा रेत की तरह झर-झरकर उसके मन की तलहटी पर जमा होती जा रही थी, जिसके नीचे विचार-शक्ति और भावनाएं धीरे-धीरे दबती जा रही थीं।
एक दिन जब उसने पाया कि उसकी ज़ेब में सिर्फ़ एक सौ नब्बे रुपए बचे रह गए थे तो एकाएक ही उसकी आंखों के सामने विकराल गरीबी झेलते परिवार का चित्र यथार्थ अनुभव की तरह चमक गया था। वह घबराया-सा दूकान-दर-दूकान भटकता हुआ नौकरी खोज़ने लगा था, पर सभी जगहों से उसे इनकार ही सुनने को मिला था। धीरे-धीरे ‘इदर में किदर रखा है काम’ उसके कानों में निरन्तर गूंजने लगा था। फ़िर भी जब निराशा का सामना करने के लिए मानसिक रूप तैयार होकर किसी दूकान की ओर कदम बढ़ाता तो जैसे उसके कानों में पहले ही कोई फुसफुसा देता-‘इदर में किदर रखा है काम’। दो दिनों की भटकन में वह ये शब्द इतनी बार सुन चुका था कि उसे भ्रम होने लगा कि वह मुम्बई की सभी दूकानों में काम खोज़ चुका था और अब आशा की कोई किरण न थी... थकान और पसीने ने भी उसे शारीरिक रूप से तोड़ना शुरु कर दिया था। उसके शरीर से आने वाली आटे की गन्ध न जाने कब खो गई थी और अब वह पसीने की दुर्गंन्ध महसूस करने लगा था। लेकिन कुछ तो करना ही है, यह सोचकर एक दिन दस-पन्द्रह दूकानों पर दरियाफ़्त करने के बाद एक दूकान से डेढ़ किलो मूंगफ़ली और कुप्पी बनाने के लिए पुराने अखबार खरीदकर दूर-दराज़ की चालों में आवाज़ लगाता हुआ घूमने लगा था। शाम होते-होते जब सारी मूंगफ़ली बिक गई थी और लाभ के रूप में उसकी ज़ेब में नौ रुपए आ गए थे तो उसे लगा था कि उसने चिन्ता का एक बहुत बड़ा सागर पार कर लिया था। अगले दिन उसने दो किलो मूंगफ़ली खरीदी थी। उस दिन उसने बीस रुपए कमाए थे। एक हफ़्ते बाद ही उसे लगने लगा था कि जी-तोड़ मेहनत करने के बाद भी वह पच्चीस रुपयों से ज्यादा नही कमा सकता था। फ़िर एक दिन जब ज़ेब में लाभ के बीस रुपए ओर थैले में लगभग दो सौ ग्राम मूंगफ़ली बची रह गई और शाम ढलने लगी तो वह झोपडे़ में लौट आया था। उसे इतनी जल्दी आया देखकर बीवी खुश हुई थी। जब उसने बीवी के हाथ में मूंगफ़ली की कुप्पी थमाई तो वह हैरान रह गई थी। आज से पहले मूंगफ़ली या शौकिया खाने लायक कोई चीज़ लेकर वह घर नहीं आया था।
-‘कितने की मिली?’ उसने पूछा था, होठों पर मुसकान और आंखों में चिन्ता थी।
-‘बहुत सस्ती, सिर्फ़ चार रुपए की है। उसके पास इतनी ही बची थी, इसलिए सस्ती दे दी।’ उसने सफ़ाई दी थी और सूखी-सी हंसी हंस पड़ा था।
वह चटाई पर अधलेटा-सा बीवी-बच्चों को रुचिपूर्वक मूंगफ़ली फ़ोड़ते-खाते देखता रहा था। उस क्षण कितना सुखी था, वह।

रात को बच्चों को सुलाने के बाद दोनों आलिंगनबद्ध हुए थे तो कांपती-फुसफुसाती आवाज़ में उसने पन्द्रह दिन पहले नौकरी छूटने और अब तक मूंगफ़ली बेचने की बात बताई थी। क्षणभर के लिए बीवी की बाहें शिथिल हो गई थीं, फ़िर उसने उसे जकड़ लिया था, जैसे उसके कहीं दूर भाग जाने के भय से आक्रांत हो उठी हो। वह बार-बार उसे भींच लेती और चेहरे पर, छाती पर, गरदन में चुंबनों की बौछार-सी कर देती और कभी उसके सीने में चेहरा गड़ाकर आ पडे़ क्षण से मुक्ति पाने की कोशिश करने लगती। उसे जब अपने होठों के बीच बीवी के आंसुओं का खारापन महसूस हुआ था तो वह भी आवेग न रोक सका था और उसकी आंखों से भी आंसू ढुलक पडे़ थे। वह भी उसकी मन:स्थिति तुरन्त समझ गई थी। उसने उसके चेहरे पर हाथ फेरा था, फ़िर ‘छि:’ कहकर भींच लिया था। मन का आवेग कब देह के आवेग में बदल गया था, दोनों ही नहीं जान पाए थे। वह उसके ऊपर चली आई थी, गरदन और गालों पर दांत चुभा रही थी, होंठ और जीभ से उसका चेहरा गीला कर रही थी। साझा दुख उन्हें कहीं दूर भाग जाने के लिए प्रेरित कर रहा था और दोनों एक दूसरे की तरफ़ भाग रहे थे।
दाम्पत्य जीवन के शुरुआती दिनों के बाद इतना सघन चरम सुख उन्होंने कभी नहीं पाया था।

अगली रात खाने के बाद वह झोपड़पट्टी में दिखाई जा रही सार्वजनिक वीडियो फ़िल्म का शो देखने गया था। फ़िल्म पुरानी थी। एक हिजड़ा था उसमें, जिसने खूब हंगामा मचाया था और हीरो ने अपनी प्रेमिका को बचाने के लिए ज़बर्दस्त संघर्ष किया था। फ़िल्मों के बारे में उसे ज़्यादा कुछ नहीं पता था। पास बैठे आदमी ने जब उसे बताया कि वह असल हिजड़ा नहीं, बल्कि सदाशिव नाम का ‘विलेन’ था तो वह हैरान हुआ था। रात को जब बीवी-बच्चे सो रहे थे तो उसके दिमाग पर ‘महारानी’ नाम का वह हिजड़ा छाया हुआ था। वह लेटा-लेटा याद करने की कोशिश कर रहा था कि असल ज़िन्दगी में उसने हिजड़ों को कब-कब, कहां-कहां और क्या-क्या करते देखा था। उसे याद आए असली सोने की ज़ंजीरें पहने हिजडे़, उनके ब्लाउज़ से झांकते सौ और पचास रुपयों के नोट। दिनभर में सौ-दो सौ रुपए कमा लेना तो उनके लिए जैसे मामूली बात थी। ताली बजाकर कमर मटकाने, नाचने और आधे-अधूरे गीत गाने के अलावा जैसे उनका और कोई काम ही न था और सिर्फ़ इतना-सा करने पर सौ-दो सौ रुपए ! उसकी अपनी कमाई से सात-आठ गुना ज़्यादा... ! आखिर मर्द से वे किस तरह अलग होतें हैं! फ़िर जो ‘असल’ अंतर होता है, वह दीखता भी कहां है! इतना तो वह भी कर सकता है... यही वे क्षण थे जब उसने दुरुस्त होशोहवास में हिजडा बनने का निर्णय लिया था। उसे खुशी हुई थी कि उसके बाल इतने लम्बे हो चुके थे कि वह उन्हें रबर-बैंड से बांधकर छोटी-सी चोटी बना सकता था। चेहरे पर भी बहुत कम बाल थे...पर सिर्फ़ इतना काफ़ी न होता। वह रूप कहां बदलता? छोटे-से झोपडे़ में यह सम्भव न था...हां, अगर बीवी-बच्चों को सास-ससुर के पास नासिक भेज दे तो सम्भव था...नहीं, तो भी कठिनाई थी। सुबह-शाम निकलते-लौटते वह पड़ोसियों की नज़रों से बच नहीं सकता था। यह उसका इतना निजी मामला होता कि किसी को हर्गिज़ भी शामिल नहीं किया जा सकता था। हां, झोपडे़ के पीछे नाले के पास वह अपना रूप बदल सकता था, जहां कोई नहीं जाता था। वहां अक्सर मालगाड़ी के डिब्बे खडे़ रहते थे।

तीन दिनों बाद उसने भोली-भाली बीवी को समझा-बुझाकर, माली तंगी का वास्ता देकर बच्चों सहित नासिक पहुंचा दिया था, जहां सास-ससुर दो कमरों के घर में रहते थे। उसने कहा था-‘कोई अच्छा-सा काम मिलते ही हफ़्ता-दस दिन में तुम लोगों को लेने आ जाऊंगा।’

अगले दिन जब वह वापस लौटा था तो खाली झोपड़ा जैसे उसे अंदर आने से रोक रहा था। उसकी ज़ेब में सिर्फ़ पचास रुपए बचे थे। चटाई पर लेटा हुआ वह बहुत देर तक झोपडे़ की रिक्तता में सघन उदासी महसूस करता रहा था। उसे लग रहा था कि उसने हिजड़ा बनने के निर्णय लेकर बहुत बड़ी बेवकूफ़ी की थी। बीवी-बच्चों के बिना आने वाला हर क्षण असहनीय और भारी होता लग रहा था। इससे पहले शायद वह इस झोपडे़ में कभी क्षणभर के लिए भी अकेला नहीं रहा था। क्या ज़रूरत थी ऐसा करने की...मूंगफ़ली बेचकर वह उतना तो कमा ही लेता, जितना उसे चक्की की मालकिन दे रही थी...हिजड़ा बनने की योजना कितनी बेवकूफ़ी की थी, यह बात उसे पहले क्यों न समझ में आई। लेकिन अब क्या हो सकता था! अब अगर बीवी-बच्चों को वापस लाना भी चाहे तो रुपए कहां थे!
उसका दिल बैठने लगा।
फ़िर दिल को मज़बूत करके कोने में रखा टिन का बक्सा खोलकर जब उसने बीवी के वे कपडे़ निकाले, जिन्हें वह कभी-कभी ही पहनती थी तो उसका दिल धड़क उठा था। पिछले एक महीने में उगी नाम-मात्र की दाढ़ी-मूछ साफ़ करके उसने साबुन से रगड़-रगड़कर चेहरा धोया था, फ़िर बालों को पीछे करके रबर-बैंड से बांध लिया था। ब्रा, ब्लाउज़, पेटीकोट और साड़ी पहनकर शीशे में देखा तो एकाएक खुद को पहचान नहीं पाया था। पुरानी लुंगी के टुकड़ों के गोले बनाकर ब्रा में सरका दिए थे, माथे पर लिपस्टिक से गोल बिन्दी बनाई थी और होंठ रंग लिए थे। अब वह हिजड़ों से कहीं ज़्यादा औरत लग रहा था। उसके शरीर में मीठी सनसनी दौड गई थी। बीवी की दैहिक निकटता की तीव्र कामना से वह भर उठा था और शरीर में गर्म रक्त का प्रवाह अनुभव कर रहा था। अफ़सोस कि बीवी नासिक में थी। उस दौरान उसे झोपड़पट्टी की कई औरतें याद आई थीं, जो कभी-कभार उससे बातें कर लेती थीं। उसे पता था कि तृष्णा के इस क्षण में उसे कोई औरत न मिलने वाली थी।
उसने फ़िर शीशे में देखा---एक हिजड़ा उसकी ओर देख रहा था।


ससुराल में बीती रात और रात की कहानी
एक हफ़्ता बीतने के बाद से हर दूसरी सुबह झोपड़पट्टी के पी.सी.ओ. पर बीवी का फ़ोन आने लगा था—‘जल्दी आकर ले जाओ’। कभी बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की बात करती तो कभी कहती कि आखिर कब तक वह मां-बाप के पास रहेगी। जब वह अपनी व्यस्तता और परेशानी का हवाला देता तो कहती कि बच्चों को लेकर वह खुद ही चली आएगी। जब वह कडे़ स्वर में मना करता तो सुबकने लगती। फ़िर मुलायम स्वर में समझाता—‘तू समझती नहीं है! एक फ़ैक्टरी में वाचमैनी का काम मिलने वाला है। बस, एक हफ़्ते और रुक जा।’ इस तरह आश्वासन देते-देते दो हफ़्ते बीत गए थे। इस बीच उसके पास डेढ़ हज़ार रुपए जमा हो गए थे और मन में माली हालत सुधरने की उमंग भर गई थी। उसने तय किया था कि वह महीने में दो-तीन बार नासिक जाया करेगा और हर बार बीवी को पांच-छह सौ रुपए दे दिया करेगा। वहीं के किसी स्कूल में बच्चों का नाम भी लिखवा देगा। यही ठीक रहेगा! पहले तो सात सौ रुपए में महीने भर का खर्च चल जाता था। अब तो वह हज़ार-बारह सौ रुपए दिया करेगा, फ़िर वहां सास-ससुर की रसोई में खाना बनेगा तो सस्ता ही पडे़गा।
फ़िर एक शाम वह नासिक जा पहुंचा था, बीवी बच्चों के लिए कपडे़ और मिठाई का डिब्बा लेकर।

शाम का समय बच्चों के साथ हंसते-बतियाते बीत गया था। वह सिर्फ़ दिखावे के लिए बात-बात पर हंस रहा था, लेकिन भीतर कोई चीज़ बिलकुल स्थिर थी और रात की प्रतीक्षा कर रही थी। बरामदे में एक बार बेटी ने अपने नाना-नानी के बारे में कोई ऐसी मज़ाकिया बात कही थी कि वह जैसे नियंत्रण खोकर, हाथ नचाकर, ताली बजाकर हंस पड़ा था। बेटी ने उसे चौंककर देखा था। ताली की ऊंची आवाज़ सुनकर बीवी भी बाहर चली आई थी। बेटी ने कहा था-‘मम्मी, पापा ने ताली बजाई...पहले तो आप ताली नहीं बजाते थे, पापा!’
-‘ठीक है, भाई, अब नहीं बजाएंगे।’ कहकर वह खिसियाया-सा कमरे में घुस गया था। उसे डर लगने लगा था कि उसका शरीर बेकाबू होकर कहीं नाचने न लग जाए। पिछले दिनों का अभिनय अब सिर्फ़ अभिनय ही नहीं रह गया था, बल्कि उसके व्यक्तित्व में कहीं गहराई से समा गया था...हाथ, कमर और आंखों की मांसपेशियो पर जैसे अब उसका कोई नियंत्रण नहीं रह गया था, सब जैसे स्वतंत्र होकर काम करने लगी थीं। बात-बात पर ताली का बज जाना, कमर का अचानक हिल जाना, दांतों का निपोरा जाना, आंखों का मटकना….सब जैसे अपने आप होने लगा था। और तो और, उसकी चाल भी बदल गई थी। ‘ये मुझे क्या हो गया, भगवान,’ उसने मन ही मन कहा था और सावधान हो गया था।

रात को बीवी ने उसे अपने पास खींचते हुए पूछा था-‘इतने दिनों बाद सुध ली है!’
-‘दस दिन से एक फ़ैक्टरी में वाचमैनी शुरु की है, शाम के सात बजे से सुबह छह बजे तक। डेढ़ हज़ार दे रहे हैं...’ उसने बात बदलने की कोशिश की थी।
-‘यह तो बहुत है!’ वह हैरान हुई थी।
-‘लेकिन ज़िन्दगानी गड़बड़ हो गई है।’
-‘चलो, जाने दो। परिवार से दूर रहना अच्छा लगता है, क्या?’
-‘कोई दूर रहकर खुश रह सकता है!’ अफ़सोसभरे स्वर में कहते हुए उसने उसके गाल से मुंह चिपका दिया था-‘काट लूं?’
-‘ऊं...हां, लेकिन धीरे से। निशान न पडे़।’ कहकर वह उससे चिपक गई थी। उसके शरीर से सुगन्ध आ रही थी। शायद कोई क्रीम या पाउडर लगा कर आई थी। बालों में चमेली के फूलों की वेणी भी थी। अचानक वह उठा तो उसने पूछा था- ‘कहां...?’ दीवार पर टंगी पैंट की ज़ेब में से उसने अलग से गिनकर रखे पांच सौ रुपए निकालकर बीवी को दिए थे- ‘ये पिछले महीने की दस दिनों की पगार है। रख ले। मेरे पास और हैं।’
-‘हम लोग नहीं जाएंगे क्या?’
-‘कैसे जाएगी?’ उसकी कमर अनियंत्रित-सी होकर हिली थी, जैसे इनकार कर रही हो-‘मुझे रातभर फ़ैक्टरी में रहना पड़ता है।’
-‘ये ठीक नहीं है। आखिर कब तक....?’
-‘इतना समझ ले कि तुम लोग गए तो मै नौकरी नहीं कर पाऊंगा….यहां महीने में दो-तीन बार आया करूंगा...दोनों को यहीं किसी स्कूल में भरती करा दे।’ उसने निर्णायक स्वर में कहा था। वह चुप हो गई थी। वह उसके पास जा लेटा था। कुछ देर बाद लम्बी सांस छोडकर उसके वह उसके बालों में उंगली फ़िराने लगी थी-‘बाल क्यों नहीं कटवा लिए?...तुम बहुत बदल गए हो, जी।’
-‘नई नौकरी है, न।’
-‘वो बात नहीं...’ वह कुछ कहने वाली थी, लेकिन चार होठों के बीच उसकी आवाज़ घुटकर रह गई थी।


दूसरे कमरे में बच्चों की नानी ने कहानी खत्म करते हुए कहा था-‘किसी राजकुमारी की वैसी शादी नहीं हुई थी। देश-दुनिया से लोग आए थे और रातभर खाते-पीते रहे थे।’
-‘अच्छी थी।और सुनाओ।’
-‘अब सो जाओ।’
-‘नहीं नानी, बस एक..।’ लडके ने ज़ोर देकर कहा था।
-‘अच्छा, एक और..., फ़िर सोना पडे़गा।’


-‘अब कब आओगे?’ बीवी ने पूछा था।
-‘अभी तो हूं, न। इधर खिसक।’
-‘सोना नहीं है! चार बज रहे हैं।’
-‘वो तो रोज़ बजते हैं।’
-‘बताया नहीं तुमने!’वह पास खिसक आई थी।
-‘अगले हफ़्ते।’ उसने कहा था।

लेकिन वह दो हफ़्ते बाद आया था। इस बार भी उसने एक हफ़्ते बाद आने का वायदा किया था....और तीसरा हफ़्ता चल रहा था।




आज की रात
-‘हां, सुबह बल्ब बुझाना भूल गया था।’ उसने खुद से कहा और थैला संभाले झोपडे़ के सामने चला गया। दरवाज़े के सामने सोए कुत्ते को उसने दुरदुराकर भगाया। अचानक दरवाज़ा खुल गया। उसकी नज़र पहले बीवी के चेहरे पर पड़ी, फ़िर अन्दर सोए बच्चों पर।
-‘तू कब...क्यों चली आई?’ उसने अटकते हुए पूछा-’मैने कहा था न कि वहीं रह। मैं तो कल ही आने वाला था।’
वह चुप रही। बेशक वह नाराज़ थी, उससे।
थैला उसने दरवाज़े के पीछे रख दिया। बीवी ने थैले की तरफ़ ध्यान नहीं दिया, तो वह कुछ निश्चिंत-सा हो गया।
-‘हाथ-मुंह धो लो, खाना लगाती हूं।’ वह बोली।
वह ढाबे से खाकर आया था, इसलिए बहुत बेमन से खा पाया।

जब वे बत्ती बुझाकर लेटे तो बीवी ने रुलाई रोकते हुए कहा-‘ये तुम क्या बन गए हो, जी! वे तीनों तुम्हारे पीछे क्यों पडे थे?’
-‘क्या!’ वह घबरा गया। अंधेरे में उसकी आंखें फैल गईं और चेहरा विकृत हो गया। माथेपर पसीना चुहचुहा आया।
वह फफककर रो पड़ी।
उसकी सांसे तेज़ हो गईं। एक गहरे कुएं में वह गिर रहा था। अंधेरा और घना हो गया था। उसके शरीर से कपडे़ अलग हो रहे थे। हे भगवान, यह एक बुरा सपना हो… सच न हो… बस एक बुरा सपना ही हो...’ वह बुदबुदा रहा था।

---इति---






राजेश प्रसाद
केन्द्रीय विद्यालय
ढेंकानाल
पत्रालय-मंगलपुर (वाया-भापुर)
ढेंकानाल-759015,उडीसा; फ़ोन नं.9437012565\वाराणसी का फ़ोन नं.0542-2316418.
ई-मेल-psdrajesh@rediffmail.com, psdrajesh@gmail.com
रचना-काल:अक्तूबर, 2005.

Thursday, March 13, 2008

मधुशाला में

आज 73 साल बाद भी मधुशाला के शब्द..गीतात्मक रुबाइया मन पर जादू कर देती हैं ...यार लोग मना करते रहें , बीवी कसम देती रहे, पर अपन तो मदिरालय जाने के लिए तैयार रहते हैं ...क्या लिख गया बड़का वाला बच्चन ...

लालायित अधरों से जिसने हाय नहीं चूमी हाला,
हर्ष विकंपित कर से जिसने हां न छुआ मधु का प्याला

हाथ पकड़ लज्जित साकी का पास नहीं जिसने खींचा
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला॥

मदिरा आत्मा है, चाहे गन्ने की हो या अंगूर की या फ़िर चावल की ...आत्मा सदा समस्त पापों से मुक्त होती है ..मदिरा आदमी को बिल्कुल नंगा कर देती है ...सांसारिक मोह-माया से मुक्त कर देती है....रावण ने तो अपने ग्रन्थ में लिखा है कि जो मनुष्य मुक्ति का अभिलाषी हो, वह मदिरा पी पीकर, बेहोशी की अवस्था में यदि परमधाम चला जाए तो उसकी मुक्ति हो जाती है क्योंकि मरते समय वह सभी इच्छाओं से मुक्त होता है...अत: उसका पुनरागमन नहीं होता ....न विश्वाश हो तो महर्षि दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश देखिये...

इसी लिए सबसे बड़े वाले बच्चन मेरे प्रिय हैं...हाँ , कभी-कभी जब मधुशाला की उत्तरार्ध की रुबाईयाँ पड़ता हूँ तो लगता है ,प्रतीकात्मक भाषा में जीवन को ही मधुशाला कह कर बच्चन ने हमको बीच में
छोड़ दिया है ....

मियां नसीरुद्दीन -कृष्णा सोबती (XI )

  मियां नसीरुद्दीन कृष्णा सोबती   _____________________________________________________   ‘मियां नसीरुद्दीन’ एक संस्मरणात्मक शब्दच...