आत्म-परिचय
हरिवंश राय ‘बच्चन’
1.
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूं
फ़िर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हू।
कर दिया किसी ने झंकृत
जिनको छूकर
मैं सांसों के दो तार लिए फिरता हूं।
इस जग में जीवन बिताना मेरे लिए भार है।
तो भी मेरे जीवन में संसार के लिए प्रेम है। (जबकि ऐसा होता
नहीं है!)
मेरे जीवन में संगीत की तरह `किसी’ ने यह प्रेम जागृत
किया है।
इसी संगीत अर्थात प्रेम के कारण इस संसार में मेरा जीना और
घूमना हो पा रहा है।
झंकार या संगीत उत्पन्न करना
2.
मैं स्नेह-सुरा का
पान किया करता हूं,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूं,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते
मैं अपने मन का गान किया करता हूं।
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूं,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते
मैं अपने मन का गान किया करता हूं।
कवि कहता है-
मैं स्नेह की सुरा पीता
रहता हूं। मैं प्रेम में डूबा रहता हूं।
इस कारण मुझे संसार का ख्याल नहीं आता है।
संसार भी मेरी तरफ़ ध्यान नहीं देता है क्योंकि संसार उनसे
मतलब रखता है, जो संसार को
अच्छी लगने वाली बातें करते हैं, संसार के अनुसार चलते हैं।
मैं तो अपने मन के गीत गाता हूं। संसार से मुझे कोई मतलब
नहीं है।
प्रेम की शराब
3.
मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता
हूं,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूं.
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता,
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूं।
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूं.
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता,
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूं।
कवि अपने उर के उद्गारों अर्थात हृदय की भावनाओं को महत्त्व
देता है।
वे भावनाएं ही उसके हृदय की उपहार हैं।
कवि को संसार अधूरा लगता है क्योंकि वहां भावनाओं को
महत्त्व नहीं
मिलता है। कवि भावनाओं में जीता है।
इसलिए कवि अपना सपनों का संसार बना लेता है और उसी में रहता
है।
हृदय
(हृदय में) उत्पन्न होने वाला (अर्थात भाव)
4.
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूं,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूं.
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव-मौजों पर मस्त बहा करता हूं।
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूं.
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव-मौजों पर मस्त बहा करता हूं।
कवि अपने हृदय में आग जलाता है और उसमें जलता रहता है। यह
आग प्रेम की है।
ऐसी स्थिति में कवि को सुख मिले या दुख मिले, सहज भाव से स्वीकार करता है।
दूसरी तरफ़ संसार है, संसार के लोग हैं, जो भव रूपी सागर को पार करने के
लिए नाव बनाते हैं, अर्थात धन-संपदा, शिक्षा-प्रशिक्षण, दुनियादारी
आदि का सहारा लेते हैं।
पर कवि कोई चुनाव नहीं करता, वह खुद को भव की मौजों पर
मस्ती से बहने देता है।
वे मौजें जहां ले जाएं, वहीं बह जाता है।
जलना
संसार
लहर
5.
मैं यौवन का उन्माद लिए
फिरता हूं,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूं,
जो मुझको बाहर हंसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूं।
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूं,
जो मुझको बाहर हंसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूं।
कवि कहता है- उसमें युवावस्था का पागलपन है।
उस पागलपन में अवसाद है।
यह पागलपन और अवसाद ‘किसी’ की याद के कारण है।
वह याद उसे बाहर से, दुनिया के सामने हंसने पर विवश करती है, पर भीतर ही
भीतर कवि
रोता है।
युवावस्था
पागलपन, नशा
गहरी उदासी, गहरा विषाद, Depression
6.
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहां पर दाना!
फ़िर मूढ़ न क्या जग जो इसपर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूं, सीखा ज्ञान भुलाना!
नादान वहीं है, हाय, जहां पर दाना!
फ़िर मूढ़ न क्या जग जो इसपर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूं, सीखा ज्ञान भुलाना!
सत्य को जानना असंभव है। सब कोशिश
करके मिट गए, पर कोई सत्य को जान
नहीं सका।
सत्य को जानने के सन्दर्भ में नादान
(अज्ञानी/अबोध) और दाना (ज्ञानी) एक ही
स्तर पर होते हैं, एक जैसे
सिद्ध होते हैं।
सत्य को जानना असंभव है, फ़िर भी संसार के लोग सत्य को जानने
की कोशिश करते हैं। इसलिए कवि उन्हें मूढ़ (मूर्ख)
कहता है।
कवि अब अपने सीखे हुए ज्ञान को भुलाना सीख रहा है, क्योंकि उससे सत्य को जानने में कोई मदद
नहीं मिलती है।
7.
मैं और, और
जग और, कहां का नाता !
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
कवि कहता है-मैं अलग हूं और
संसार अलग है, दोनों में कोई संबंध या नाता नहीं है।
मैं अपने सपनों के कितने ही संसार मन ही मन रोज़ बनाता और
मिटाता रहता हूं।
मैं उस पृथ्वी को अस्वीकार करता हूं, जहां के लोग दुनियादारी में फ़ंसकर लोग
धन-संपदा, ठाठ-बाट और दुनियादारी की सामग्री एकत्र करते रहते
हैं।
संबंध
कदम
8.
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूं,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूं,
हों जिसपर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूं।
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूं,
हों जिसपर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूं।
कवि कहता है-वह जब रोता
है, तो उसमें भी एक राग
है, एक संगीत है। यह राग प्रेम का है।
वह शीतल वाणी बोलता है, पर उसमें भी एक आग है। वह आग प्रेम की है।
कवि के प्रेम का संसार अब खंडहर बन चुका है। उसे अपना खंडहर
इतना प्रिय है कि वह उस पर भूपों के प्रासाद भी
निछावर कर सकता है। अवसाद होने पर ऐसा होता है जब व्यक्ति को अपने दुख प्रिय लगने
लगते हैं।
रोना
राजाओं के महल
9.
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते छंद बनाना,
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूं एक नया दीवाना!
मैं फूट पड़ा, तुम कहते छंद बनाना,
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूं एक नया दीवाना!
कवि जब भी रोया, लोगों ने कहा कि वह गीत गा रहा है।
कवि जब फूट-फूट कर रो पड़ता है, तो लोग कहते हैं कि छंदों की रचना कर रहा
है।
लोग उसे कवि समझकर उसकी पीड़ा को अनदेखा कर देते हैं। कवि को
संसार के इस रवैये से तकलीफ़ होती है।
वह चाहता है कि लोग उसे कवि के रूप में नहीं, एक दीवाने के रूप में पहचानें और स्वीकार
करें।
पागल, प्रेमी
10.
मैं दीवानों का वेश लिए
फिरता हूं.
मादकता नि:शेष लिए फिरता हूं,
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूं।
मादकता नि:शेष लिए फिरता हूं,
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूं।
कवि चाहता है कि लोग उसे दीवाने के रूप में जानें और इसीलिए
वह दीवानों का वेश बनाकर घूमता है। उसके दीवानेपन में नि:शेष
मादकता (पूरा नशा) है।
कवि संसार को मस्ती का
संदेश देना चाहता है। उस संदेश को यदि संसार
सुन ले तो वह भी कवि की तरह, हवा में झूमते-झुकते-लहराते पेड़ की तरह आनंद से भर जाएगा।
मादकता-नशा
नि:शेष-पूरा
मस्ती-आनंद
कविता के प्रश्न करने से पहले ज्ञान की
प्रतिपुष्टि के लिए इन सूक्ष्म प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर दीजिए।
1. संसार में जीना कवि
को कैसा लगता है?
2. संसार किन्हें पूछता
है और क्यों?
3. कवि पर संसार ध्यान
क्यों नहीं देता है?
4. कवि को संसार अपूर्ण
क्यों लगता है?
5.अपूर्ण संसार देखकर
कवि क्या करता है?
6. लोग संसार में जीने
के लिए क्या करते हैं?
7. कवि संसार की लहरों
पर कैसे बहता है?
8. कवि में युवावस्था का
नशा और नशे में अवसाद क्यों है?
9. ‘किसी की याद’ का कवि
पर क्या प्रभाव पड़ता है?
10. सत्य के बारे में
कवि क्या कहता है?
11. कवि नादान और दाना
बराबर क्यों मानता है?
12 संसार क्यों मूढ़ है?
13. कवि सीखा ज्ञान क्यों भुलाना चाहता है?
14. कवि और संसार क्यों अलग हैं? कवि
को संसार से क्या शिकायत है?
15. कवि किस पृथ्वी को अस्वीकार करता है?
16. संसार के लोग कवि को क्या समझकर अनदेखा-अनसुना कर देते
हैं?
17. कवि अपना परिचय किस रूप में देना चाहता है?
18. संसार के लिए कवि का क्या संदेश है?
19. उस सन्देश का संसार पर
क्या प्रभाव पड़ सकता है?
20. कवि का व्यक्तित्व कैसा है?
21. आपको कवि के व्यक्तित्व में कौन-से विरोधाभास दिखाई देते
हैं?
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