Tuesday, July 7, 2020

कैमरे में बन्द अपाहिज ---रघुवीर सहाय



18 मई 2020

कई बार पढ़कर समझिए और अपनी लेखन-पुस्तिका में लिख लीजिए।

कैमरे में बन्द अपाहिज
रघुवीर सहाय
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·       यह कविता उस समय लिखी गई थी, जब भारत में सिर्फ़ दूरदर्शन ही इकलौता टेलीविजन चैनल था।

·       आपने अभिव्यक्ति और माध्यम में पढ़ा है कि दूरदर्शन की स्थापना का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है, बल्कि उसे निम्नलिखित उद्देश्यों को भी पूरा करना है-
सामाजिक परिवर्तन
राष्ट्रीय एकता
वैज्ञानिक चेतना का विकास
परिवार कल्याण को प्रोत्साहन
कृषि विकास
पर्यावरण संरक्षण
सामाजिक विकास (यानी सामाजिक उद्देश्य)
खेल-संस्कृति का विकास
सांस्कृतिक धरोहर को प्रोत्साहन

·       इस प्रकार दूरदर्शन को सामाजिक उद्देश्य (सामाजिक विकास) की भी बात करनी है, इसलिए वह कुछ ऐसे कार्यक्रम भी प्रस्तुत करता है, जिसमें अक्सर दर्शकों की रुचि नहीं होती है। तो भी उसे अपना कार्यक्रम रुचिकर बनाना है और विज्ञापन-प्रसारण करके राजस्व (रुपये) भी कमाना है।  

·       कई बार ऐसी स्थिति भी पैदा हो जाती है कि सामाजिक सरोकार के कार्यक्रम सफल नहीं होते हैं। जो दर्शकों के सामने प्रस्तुत करना होता है, वह ढंग से प्रस्तुत नहीं हो पाता है और कार्यक्रम का समय खत्म हो जाता है।

·       इन बातों को ध्यान में रखकर कविता को पढ़ेंगे तो कविता अत्यंत आसानी से समझ में आ जाएगी।

कविता की पृष्ठभूमि

दूरदर्शन का कार्यक्रम-निर्माता अपने स्टूडियो में एक अपाहिज (विकलांग) व्यक्ति को बुलाकर उससे बात करता है और उसकी तकलीफ़ को जनता तक पहुंचाना चाहता है । कार्यक्रम-निर्माता का ध्यान कई दिशाओं में भटकता है। कभी वह अपाहिज की तकलीफ़ को उभारने की कोशिश करता है, कभी अपाहिज ही इतना घबरा जाता है कि कुछ बोल नहीं पाता है, कभी वह अपाहिज को इशारा करता है कि उसे क्या बोलना है, कभी वह समय की तरफ़ देखता है, कभी उसे समझ में नहीं आता है कि वह अपाहिज से क्या पूछे, कभी वह अपाहिज का चेहरा और आंखें स्क्रीन पर क्लोज़ शाट में बड़ा-बड़ा दिखाकर उसकी तकलीफ़ को दर्शकों तक पहुंचाने की कोशिश करता है। कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाला अपाहिज को रुलाने के लिए क्रूरता भी करता है,
जबकि ऐसे कार्यक्रमों का उद्देश्य दर्शकों को संवेदनशील बनाना होता है।

आखिर में यह जानते हुए कि कार्यक्रम सफल नहीं हुआ, कार्यक्रम निर्माता यह कहते हुए कार्यक्रम के समाप्ति की घोषणा कर देता है कि –‘आप देख रहे थे सामाजिक उद्देश्य से युक्त कार्यक्रम। धन्यवाद!


कैमरे में बन्द अपाहिज

शब्दार्थ

हम-कार्यक्रम निर्माता
समर्थ शक्तिवान-हम स्टूडियो में कुछ भी पूछ सकते हैं क्योंकि हम शक्तिशाली हैं
दुर्बल-कमज़ोर, यहां पर अपाहिज
बन्द कमरे-दूरदर्शन स्टूडियो
वास्ते-के लिए
अपंगता-विकलांगता
आप-दर्शक
उसे- होठों की कसमसाहट को
दोनों-अपाहिज और दर्शक
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हम दूरदर्शन पर बोलेंगे
हम समर्थ शक्तिवान
हम एक दुर्बल को लाएंगे
एक बन्द कमरे में ।
समाज के दुर्बल व्यक्ति को दूरदर्शन के स्टूडियो में बुलाकर हम कुछ
भी पूछ सकते हैं, उसे रुला सकते हैं क्योंकि हमारे पास शक्ति और सामर्थ्य है।
उससे पूछेंगे तो आप क्या अपाहिज हैं?
तो आप क्यों अपाहिज हैं?
आपका अपाहिजपन तो दुख देता होगा
देता है?
(कैमरा दिखाओ इसे बड़ा-बड़ा)
हां तो बताइए आपका दुख क्या है
जल्दी बताइए वह दुख बताइए
बता नहीं पाएगा
यह जानने हुए कि वह अपाहिज है, हम उससे पूछेंगे कि क्या वह अपाहिज है ।
अपाहिज को अपने अपाहिज होने का दुख होता
है, तो भी हम पूछेंगे कि क्या उसे अपने अपाहिज होने का दुख है!


सोचिए
बताइए
आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है
कैसा
यानी कैसा लगता है
(हम खुद इशारे से बताएंगे कि क्या ऐसा?)
अपाहिज व्यक्ति घबराया हुआ है, उसके पास बोलने के लिए
शब्द नहीं हैं, फ़िर भी कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाला जानना चाहता
है कि उसे अपाहिज होकर कैसा लगता है। वह अपाहिज को
कुछ इशारे से बताता है कि उसे क्या बोलना चाहिए।
सोचिए
बताइए
थोड़ा कोशिश करिए
(यह अवसर खो देंगे?)
वह कहता है कि अपाहिज व्यक्ति सोचकर बताए कि उसे
कैसा लगता है। साक्षात्कार लेने वाला इस अवसर को
खोना नहीं चाहता है क्योंकि दूरदर्शन पर
कार्यक्रम प्रस्तुत करने के सीमित अवसर होते हैं।



आप जानते हैं कि कार्यक्रम रोचक बनाने के वास्ते
हम पूछ-पूछकर उसको रुला देंगे
इंतज़ार करते हैं आप भी उसके रो पड़ने का
करते हैं?
(यह प्रश्न पूछा नहीं जाएगा)
दर्शकों को कार्यक्रम हास्य, करुण, रौद्र, भयानक,
वीर....आदि कोई भी रस मिलना चाहिए। जब सिनेमा-नाटक देखते हुए
हम रो पड़ते हैं तो यही सिनेमा-नाटक की सफलता होती है। इसलिए
अपाहिज की तकलीफ़ दर्शकों तक पहुंच सके, इसके
लिए अपाहिज और दर्शक –दोनों का रोना आवश्यक है।
दर्शक भी मन ही मन अपाहिज के रोने का इंतज़ार करते हैं।



फ़िर हम परदे पर दिखलाएंगे
फूली हुई आंख की एक बड़ी तस्वीर
बहुत बड़ी तस्वीर
और उसके होठों की एक कसमसाहट भी
(आशा है आप उसे उसकी अपंगता की पीड़ा मानेंगे)

पर जब कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाला अपाहिज के दुख को दर्शकों
तक पहुंचाने में कठिनाई महसूस करत है तो क्लोज-शाट में
अपाहिज की फूली हुई आंख और कांपते-थरथराते-कसमसाते
होंठ दिखाता है और उम्मीद करता है कि
इससे दर्शक उसके अपाहिज की पीड़ा को समझ सकेंगे।
कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाला अपाहिज को रुलाने के लिए क्रूरता भी करता है,
जबकि ऐसे कार्यक्रमों का उद्देश्य दर्शकों को संवेदनशील बनाना होता है।







एक और कोशिश
दर्शक
धीरज रखिए
देखिए
हमें दोनों एक संग रुलाने हैं
आप और वह दोनों
(कैमरा
बस करो
नहीं हुआ
रहने दो
परदे पर वक्त की कीमत है)
पर जब अपाहिज अपने दुख को रोकर प्रकट नहीं कर पाता है
तो दर्शक भी दुखी नहीं हो पाते हैं। तब कार्यक्रम प्रस्तुत करने
वाला अपनी कोशिशों में विफल होकर कैमरामैन से कहता है
कि जैसा चाहा था, वैसा कार्यक्रम बन नहीं सका। कैमरा अपाहिज
की तरफ़ से हटा लो। दूरदर्शन का समय व्यर्थ करने का कोई मतलब नहीं है।
परदे पर समय बहुत कीमती होता है।

अब मुसकराएंगे हम

आप देख रहे थे सामाजिक उद्देश्य से युक्त कार्यक्रम
(बस थोड़ी ही कसर रह गई)
धन्यवाद!
फ़िर हर कार्यक्रम के अन्त में कार्यक्रम प्रस्तुत करनेवाला
मुसकराता है और मन ही मन मान लेता है कि जैसा उसने चाहा था, वैसा नहीं हो पाया।
और ‘धन्यवाद’ कहकर कार्यक्रम-समाप्ति करने की घोषणा करता है।

***



अभ्यास- प्रश्न

1.     आप कैसे कह सकते हैं कि दर्शकों को अपाहिज के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत करनेवाला अपाहिज के साथ क्रूर बर्ताव कर रहा है?
2.     अपाहिज को रुलाने की कोशिश क्यों की जा रही है?
3.     ‘परदे पर वक्त की कीमत है’ का क्या अर्थ है?
4.     ‘बस थोड़ी ही कसर रह गई’ में किस कसर की ओर संकेत किया गया है?
5.     ‘अपाहिज पर बने कार्यक्रम’ को देखते हुए दर्शक भी अपाहिज के रोने का इंतज़ार क्यों करते हैं?
6.     कार्यक्रम प्रस्तुत करनेवाले के सामने कौन-कौन सी समस्याएं आती हैं?
7.     कोविड-19 के कारण हुई तालाबंदी से प्रभावित होकर बहुत से भूखे-प्यासे मज़दूर पैदल ही हज़ारों किलोमीटर दूर अपने-अपने गांवों की ओर जा रहे हैं। ऐसे ही किसी एक मज़दूर परिवार का काल्पनिक साक्षात्कार लिखिए। उनसे सात-आठ सवाल पूछिए, जिससे कि उनकी तकलीफ़ समझ में आ सके।


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