आज 73 साल बाद भी मधुशाला के शब्द..गीतात्मक रुबाइया मन पर जादू कर देती हैं ...यार लोग मना करते रहें , बीवी कसम देती रहे, पर अपन तो मदिरालय जाने के लिए तैयार रहते हैं ...क्या लिख गया बड़का वाला बच्चन ...
लालायित अधरों से जिसने हाय नहीं चूमी हाला,
हर्ष विकंपित कर से जिसने हां न छुआ मधु का प्याला
हाथ पकड़ लज्जित साकी का पास नहीं जिसने खींचा
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला॥
मदिरा आत्मा है, चाहे गन्ने की हो या अंगूर की या फ़िर चावल की ...आत्मा सदा समस्त पापों से मुक्त होती है ..मदिरा आदमी को बिल्कुल नंगा कर देती है ...सांसारिक मोह-माया से मुक्त कर देती है....रावण ने तो अपने ग्रन्थ में लिखा है कि जो मनुष्य मुक्ति का अभिलाषी हो, वह मदिरा पी पीकर, बेहोशी की अवस्था में यदि परमधाम चला जाए तो उसकी मुक्ति हो जाती है क्योंकि मरते समय वह सभी इच्छाओं से मुक्त होता है...अत: उसका पुनरागमन नहीं होता ....न विश्वाश हो तो महर्षि दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश देखिये...
इसी लिए सबसे बड़े वाले बच्चन मेरे प्रिय हैं...हाँ , कभी-कभी जब मधुशाला की उत्तरार्ध की रुबाईयाँ पड़ता हूँ तो लगता है ,प्रतीकात्मक भाषा में जीवन को ही मधुशाला कह कर बच्चन ने हमको बीच में
छोड़ दिया है ....
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