एक अंतर्राष्ट्रीय प्रेम कथा
वह प्रेम था, उल्लास से भरा, आसमान में उड़ने के लिए आतुर। तीस दिनों के बोकारो प्रवास के बाद आज सुबह ही वह वाराणसी, अपने परिवार के पास लौटा था। शाम को चार बजे, डाक बंट चुकने के संभावित समय से एक घंटे बाद वह पुन: रेलवे-स्टेशन पहुंचा। उस समय श्रमजीवी एक्सप्रेस प्लेटफार्म छोड़ रही थी। उसका दिल धड़क उठा। पुस्तक-विक्रेता-मित्र बुक स्टाल से बाहर निकलकर काउंटर के पास खड़ा था। दोनों एक दूसरे को देखकर मुस्करा पड़े। `कब आये, गुरु?' मित्र ने पूछा। `आज सुबह। जब ट्रेन से उतरा तो दुकान बंद थी।' `हां, आज आने में कुछ देर हो गयी थी। और सुनाओ, बाल-बच्चे ठीक-ठाक हैं?' `सब लोग ठीक हैं। मेरी कोई चिट्ठी आयी? हैदराबाद या क... कहीं और से?' `नहीं। एक दिन तुम्हारी पत्नी भी हैदराबाद वाली चिट्ठी के बारे में पूछने आयी थीं।' `मैंने उसे फोन पर कहा था...।' `अंदर बैठो। मैं चाय के लिए सोनी को कह दूं।' कहकर वह टी-स्टाल की तरफ चला गया। वह अंदर जाकर मित्र की खाली कुर्सी पर बैठ गया और थरथराती आशा से कैश-बॉक्स और दराजें टटोलने लगा। वहां उसके नाम कहीं से भी आया हुआ कोई पत्र नहीं था। वह घोर निराशा में डूब गया ओर अपलक दृष्टि से प्लेटफार्म के उस हिस्से को देखने लगा जहां एक दिन कैरमन खड़ी थी। उस मैले-कुचैले फर्श से भी उसे इतना भावात्मक लगाव हो गया था कि उस तरफ देखने भर से ही उसके हृदय का स्पंदन बढ़ जाता था। इस प्रेम की शुरुआत बहुत ही विचित्र ढंग से हुई थी। वह पैंतीस वर्ष का हो चुका था और पिछले पच्चीस वर्षों से किताबों के प्रति बेहद आकृष्ट रहा था। शिक्षा और सरकारी नौकरी के सिलसिले में उसे जिन नगरों में भी रहना पड़ा, वहां की लाइब्रेरियां और किताबों की दुकानें उसके आकर्षण का केन्द्र रही थीं। बारह-तेरह वर्ष पहले वाराणसी आने पर रेलवे-प्लेटफार्म के इस बुक-स्टॉल में गांधी-विनोबा साहित्य के साथ दुनिया के नामचीन लेखकों के साहित्य की प्रचुरता देखकर वह उत्तेजित हो उठा था। फिर एक दिन, जब वह पुस्तक-विक्रेता का मित्र बन गया तो स्टॉल के अंदर भी बैठने लगा। तब से, एक दशक से भी लंबा समय किस तरह बीत गया, उसे पता ही नहीं चला। सप्ताह की अधिकांश संध्याएं वह वहीं बिताने लगा था। कुछ ही दिनों में वह प्रत्येक शैल्फ से इतना परिचित हो गया था कि मित्र की अनुपस्थिति में किसी कुशल विक्रेता की तरह चार-पांच घंटों तक काउंटर संभाल लेता। वहां उसका जाना इतना निश्र्चित था कि बुक-स्टाल का पता उसके अपने पत्र-व्यवहार का पता हो गया था। प्रकाश और मंदिरों के इस नगर में पश्र्चिमी देशों से आने वाले पर्यटकों और शंाति के खोजी जब बुक-स्टाल के सामने ठिठकते तो विक्रेता मित्र कहताज्ञ् `लो, संभालो गुरु, तुम्हारे ग्राहक आ गये।' तब वह उत्साहपूर्वक उन विदेशी अतिथियों से बातें करता और उसे खुशी होती जब वे उसके कथन को सही अर्थों में ग्रहण कर लेते, यद्यपि उसकी अंग्रेजी कमजोर और दोषपूर्ण थी। उन्हें आत्मीयता का बोध कराने के लिए कभी-कभी वह क्षीण-सी उत्कंठा से पूछताज्ञ् `किस देश से आये हैं आप? ...कैसी किताबें पसंद करते हैं?... तब तो आपको `ऑटोबायॉग्राफी ऑफ अ योगी' अवश्य पढ़नी चाहिए। एक श्रेष्ठ किताब है।... इस देश में आपने विशेष रूप से क्या देखा?' और ऐसी ही हल्की फुल्की बातें। परिणामस्वरूप वह उन्हें पर्याप्त संख्या में किताबें बेच लेता था। विदेशी युवतियों से बात करना उसे तब और अच्छा लगता, जब वे नि:संकोच और सद्भावपूर्ण ढंग से उसकी बातों पर ध्यान देतीं। लेकिन उसकी दोषपूर्ण और सीमित शब्द सम्पदा वाली अंग्रेजी चर्चा को आगे बढ़ाने में बहुधा बाधक होती। ऐसी स्थिति में वह उनके चेहरे के भाव देखना और विस्तारपूर्वक उनकी बातें सुनना ज्यादा पसंद करता। जब कभी अपनी कमजोर अंग्रेजी पर अफसोस जाहिर करता, तो मित्र असहमति में हठपूर्वक सिर हिलाता हुआ कहता `नहीं गुरु! तुम खूब बोल लेते हो।' `और किताबें भी खूब बेच लेते हो।' वह चिढ़कर कहता। उस समय उसे अपनी अभिव्यक्ति की कठिनाई संताप से भर देती। सत्रह मार्च, शनिवार। उस दिन उसे प्रेम हुआ, उसके मन पर गहराई से खुद गया था। पूरा घटना-क्रम एक घंटे से भी कम समय में शुरू होकर खत्म हो गया था और अगले सात घंटों तक प्रेम की पदचापों का भी पता नहीं था। रात को दस बजे, अर्द्धनिद्रित अवस्था में जब उसे अपनी अशिष्ट भूल का बोध हुआ, तो उसकी नींद उड़ गई थी। पश्र्चाताप से ग्रस्त होकर वह अंधेरे में टटोलता हुआ राइटिंग टेबल पर जा बैठा था। उसे अपनी कई गलतियां याद आयी थीं, जिन्हें अब सुधार पाना कठिन था। वह बहुत देर तक खुद को कोसता रहा था। उसी दिन दोपहर को लगभग सवा दो बजे दो विदेशी युवतियां प्लेटफार्म पर पहुंची थीं। उन्हें श्रमजीवी एक्सप्रेस से दिल्ली जाना था। उनमें से एक कैरमन थी, जो सात घंटे बाद उसके प्रेम की पात्रा बन गयी थी। कैरमन ने उसे टिकट दिखाकर, ट्रेन के विषय में कुछ प्रश्न पूछकर अपनी जानकारी की पुष्टि की थी। मित्र के कथनानुसार वह `अपने ग्राहकों' की तरफ आकृष्ट हुआ था। लाल आवरण वाली किताबज्ञ् `द ग्रेटेस्ट वर्क्स ऑफ खलील जिब्रान' देखकर कैरमन की मित्र की आंखों में चमक आ गयी थी। होंठ नियंत्रित मुस्कान की मुद्रा में खुल गये थे। `कृपया, वह खलील जिब्रान...' उसने कहा था। फिर दोनों युवतियों ने अपने-अपने बैग नीचे फर्श पर रख दिये थे। किताब भारी-भरकम और कीमती थी। उत्साहित होकर विक्रेता ने वह किताब कैरमन की मित्र के सामने काउंटर पर रख दी थी। वह उन युवतियों के चेहरों के भाव और उनका पहनावा देख रहा था। जिब्रान के सान्निध्य से कैरमन की मित्र के चेहरे पर आयी खुशी से उसे खुशी हुई थी। `शायद जिब्रान के देश की निवासिनी है' उसने सोचा था। फिर मन में जन्मा प्रश्न अनायास ही उसके होंठों से फूट पड़ा था- `आप लोग इजराइल से आयी हैं?' -`नहीं तो। कनाडा से।' कैरमन की मित्र ने कहा था। जिब्रान के विषय में अपना ज्ञान प्रदर्शित करते हुए वह आत्मीयता से हंस पड़ा था- `खलील जिब्रान इजराइल का था, इसलिए मैंने सोचा कि आप लोग भी...' कैरमन की मित्र की आंखों में अजीब-से भाव तैर गये थे। उसने उसे पलभर घूरा था, फिर आत्मविश्वास भरे स्वर में कहा था- `वह लेबनान का था।' वह हतप्रभ रह गया था। फिर उसे याद आया था कि अपनी कई कृतियों में खलील जिब्रान अपने देश लेबनान का उल्लेख भावाभिभूत होकर करता है। उसे स्वयं पर क्रोध आ गया था। वह तीन-चार मिनट तक मन ही मन अपने को कोसता रहा था। शायद कैरमन पर भी खलील जिब्रान का पर्याप्त प्रभाव था। उसने अपने लिए उस किताब की एक अन्य प्रति मांगी थी। दुगुनी बिक्री की संभावना से उत्साहित होकर विक्रेता मित्र ने शो-केश से दूसरी इकलौती प्रति निकालकर कैरमन के सामने रख दी थी। कुछ देर तक उसके पन्ने पलटने के बाद जैसे विरक्त होकर कैरमन ने जिब्रान साहब को एक तरफ रख दिया था और उदासीन दृष्टि से शेल्फ की अन्य किताबें देखने लगी थी। `आपका वाराणसी आने का प्रयोजन क्या था?' सहसा उसने कैरमन से पूछा था। उसका स्वर कृत्रिम रूप से विनम्र था। `योग। मैं यहां योग-प्रशिक्षण के लिए आयी थी।' उसने बेहद सहज स्वर में कहा था। कहने के ढंग में अहंकार जैसी कोई चीज नहीं थी। उसे वह बच्चों की तरह सरल लगी थी। वह उन युवतियों में से थी, जो बातें करते हुए अनजाने में मुस्कराती हैं। स्वर में ऐसा माधुर्य था, जिसे प्राणायाम के अभ्यासी सहज ही अर्जित कर लेते हैं। शब्द अंतस से निकले हुए लगते थे और कहने का ढंग ऐसा था, जैसे किसी आत्मीय से बातें कर रही हो। अब वह स्वभावत: विनम्र हो गया थाज्ञ् `प्रशिक्षण पूरा हो गया?' `हां। मैं यहां अक्तूबर में ही आयी थी।' `और... और क्या करती हैं, आप?' `बी. ए. किया है।' `आपके विषय क्या थे, बी. ए. में?' `आर्ट्स।' `आर्ट्स। वह तो है, विषय बताएं।' `आर्ट्स... ओ, फाइन आर्ट्स।' वह झेंप सी गयी थी। उसकी झेंप ने उसे उत्साह से भर दिया था। `आप स्केच-बुक दिखाएंगी, अपनी! है, अभी आपके पास?' उत्साह भरे अनुरोध को महसूस कर उसका चेहरा लज्जारुण हो आया था। मुस्कान छिपाते हुए बोलीज्ञ् `नहीं है, अभी।' `और क्या करती हैं?' `इंटीरियर डिजाइनिंग का कोर्स किया है।' `आपका मतलब है, इंटीरियर डेकोरेशन?' उसने भ्रमित स्वर में पूछा था। उत्तर में उसने पहले `हां', फिर `नहीं' और फिर `हां' कहा था।
उसे उलझन से मुक्त करने के लिए उसने चर्चा का विषय बदल दिया था ज्ञ् `अब आप लोग कहां जा रही हैं? दिल्ली? या दिल्ली से कनाडा?' `मैं कनाडा चली जाऊंगी। मेरी मित्र अभी भारत में रहेगी।' `यहां आने में आपका कितना खर्च हुआ?... रुपयों में बताएं।' प्रश्न सुनकर कैरमन ने अपनी मित्र की तरफ देखा था। शायद उसने भी यह प्रश्न सुना था। दोनों ने आठ-दस शब्दों में विचार-विमर्श किया था, फिर दोनों एक साथ कह उठी थींज्ञ् `पैंतालिस हजार रुपये...' `यह तो बहुत है।' उसकी पेशानी पर विस्मय की रेखाएं प्रकट हो गयी थींज्ञ् `बहुत ज्यादा है। अगर मैं यहां से कनाडा जाना चाहूं तो मेरी आठ-दस महीने की तनख्वाह ही खत्म हो जाएगी...' `आप कनाडा आने की योजना बना रहे हैं?' कैरमन ने पूछा, तो वह हंस पड़ा था। ज्ञ् `नहीं-नहीं। मैं सरकारी नौकरी में हूं। बहुत छोटी तनख्वाह पाता हूं, सिर्फ छह हजार रुपये महीने... मैं सेंट्रल स्कूल में जूनियर क्लर्क हूं... मैं तो कभी विदेश यात्रा नहीं कर पाऊंगा, आप लोगों की तरह...' कहते हुए वह खेदपूर्ण ढंग से मुस्कराया था। उसकी मुस्कान ने शायद कैरमन को थोड़ा-सा विचलित कर दिया था। उसकी मुस्कान भी फीकी पड़ गई थी।
-'कितने ही लंबे समय से मैं यहां आने की तैयारी कर रही थी।' 'कितने ही लंबे समय' पर जोर देते हुए कैरमन ने अपना दाहिना हाथ सिर तक उठाकर पीछे की ओर किया था, जैसे बीत चुके `लंबे समय' को इंगित किया हो। हाथों से संप्रेषित यह भाव बेहद अर्थपूर्ण था और तत्क्षण ही उसके मन को छू गया था। उसने महसूस किया था कि वह भी उसी जैसी थी, उसी की तरह भटकती हुई, खुद को योग्य बनाने की कोशिश करती हुई ताकि स्वयं को अपने समाज में समंजित कर सके। यह भटकना ही तो थाज्ञ् फाइन आर्ट्स, इंटीरियर डिजाइनिंग, योग प्रशिक्षण.... और न जाने कितनी अर्हताएं वह अर्जित करने वाली थी, इस दुनिया में अपनी गति बनाए रखने के लिए। उसे उससे सहानुभूति हो आयी थी। यह सहानुभूति नहीं, सहानुभूति जैसी भावना थी। वह पूछना चाहता थाज्ञ् `तुम्हारे सामने कोई सुनिश्र्चित मार्ग नहीं है, क्या?' वह कह रही थी `पढ़ना, फिर काम करना, फिर पढ़ना, फिर काम करना... बहुत दिनों तक तैयारी करनी पड़ी मुझे।' वह सोच रहा था`ऐसी ही है, ज़िंदगी। बोझल और उमंगों से रहित। संघर्ष में ही ज़िंदगी बीत जाती है, जबकि कहा जाता है कि आदमी का जन्म सुख के लिए हुआ है, जैसे पंछी का जन्म उड़ान के लिए।' वह कैरमन से पूछना चाहता था `कितने दिनों तक काम करने और बचत करने के बाद तुम इस यात्रा का व्यय निकाल पायीं?' फिर तीका उत्कंठा से अस्फुट स्वर में कहता चला गया था- `मैं आपसे बहुत कुछ पूछना चाहता हूं। लेकिन समय कम है। कुछ ही देर में आपकी ट्रेेन आ जायेगी और आप चली जाएंगी। समझ में नहीं आता कि क्या पूछूं, क्या छोड़ दूं...।' अंतिम वाक्य में निराशा की भावना स्पष्ट हो गयी थी। `ठीक है, पूछें। मैं ज्यादा से ज्यादा बताने की कोशिश करूंगी।' ज्ञ्कैरमन ने कहा था। वह काउंटर पर अपनी कुहनियां टिकाकर थोड़ा-सा झुक आयी थी। उसकी इस तत्परता से वह कुछ असहज हो गया था। उसके मन में उस समय कोई प्रश्न नहीं था। वह उसका मित्र बनना चाहता था। उसे लग रहा था कि `एक युवती' होने के साथ-साथ कैरमन में और भी कुछ बातें थीं, जिनसे वह अनजाने में प्रभावित हो गया था। उसके अनौपचारिक और तत्पर स्वर ने उसे अपना मन खोलने का अवसर दे दिया था। फिर, जैसे वह उसकी बेहद अंतरंग मित्र हो, वह लड़खड़ाते और अस्पष्ट स्वर में कहता चला गया था- `दरअसल, मैं आपको जानना चाहता हूं। आपके मन को, आपके सोचने के ढंग को, आपके दृष्टिकोण को और... और भी बहुत कुछ। मैं आपका मित्र बनना चाहता हूं। पत्र-मित्र। पेन-फ्रेंड। मैं यहां से लिखूंगा, आप वहां से लिखियेगा...' कहकर उसने उसकी तरफ आशापूर्ण दृष्टि से देखा था और पाया था कि उसकी मुस्कान लुप्त हो गयी थी। चेहरे पर गंभीरता फैल गयी थी। स्पष्ट था कि मित्रता के इस प्रस्ताव को उसने बिलकुल पसंद नहीं किया था और संभवत: उसे लंपट, बनारसी ठग और परले दर्जे का घटिया आदमी समझा था। इस विचार की कल्पना से वह खुद को शक्तिहीन महसूस करने लगा था। क्षण भर के लिए कैरमन की आंखों में तैर गये शिकायत के भावों की सफाई देना और यह कहना कि वह न तो लंपट है, न ही परले दर्जे का घटिया आदमी, बल्कि उसके प्रति निश्छल मैत्री-भाव से प्रेरित होकर उसने मित्रता का अनुरोध किया था, बेहद कठिन लगने लगा था। वह कैसे विश्वास कर सकती थी, उस पर। कुछ ही मिनटों में अपने को निष्कपट सिद्ध करना उसी तरह असंभव था, जिस तरह किसी युवती से यह अपेक्षा करना कि वह सर्वथा अनजान युवक की तरफ से आये मित्रता के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेगी। भला वह उसके मन की संवेदनशीलता और उसकी हार्दिक सद्भावनाएं कैसे महसूस कर सकती थी! यदि ऐसा संभव होता, तो क्यों उसकी बातों से विरक्त होकर अपनी मित्र के निकट चली गयी होगी! कैरमन की मित्र ने भी खलील जिब्रान को एक तरफ रख दिया था और अब वह जे कृष्णमूर्ति की किताबें देख रही थी। उसने दो-तीन किताबें चुनकर रखी भी थीं। अन्यमनस्कता महसूस करते हुए एक किताब उठाकर वह पढ़ने लगा था। फिर खिन्न होकर कुछ ही क्षणों में उसने किताब एक तरफ रख दी थी। पुस्तक-विक्रेता मित्र तभी आये कुछ भारतीय ग्राहकों से बातें करने लगा था। कैरमन अपलक दृष्टि से अपनी मित्र की हाथ में फड़फड़ाती किताब देख रही थी। सब लोग कहीं न कहीं व्यस्त थे, लेकिन खुद को तिरस्कृत और निरीह-सा महसूस करने लगा था। उसने याद करने की कोशिश की थी कि कुछ क्षण पहले वह कौन-सी किताब पढ़ रहा था, लेकिन असफल रहा था। उसने उसमें क्या पढ़ा था यह भी याद नहीं कर पाया था। `शायद मैं सीजोफ्रेनिक हो रहा हूं' उसने सोचा था। जीवन के बीत चुके पैंतीस वर्षों में उसने न तो किसी युवती से इस तरह मित्रता का प्रस्ताव किया था, न ही मन में ऐसी कोई प्रबल आकांक्षा ही थी। लेकिन आज ऐसा हो गया था। इसका प्रेरक कारण कैरमन के व्यक्तित्व में ही था, कुछ विशेष, कुछ पहचाना हुआ, कनाडा के किसी अनदेखे-अनजाने गांव की सरलता जैसी कोई चीज और साथ ही फाइन आर्ट्स तथा इंटीरियर डिजाइनिंग में रुचि... और योग जैसी गूढ़ चीज के लिए दीर्घकालीन योजना बनाकर किया गया प्रयास, बेहद सामान्य कपड़े, स्वयं को धनाढ्य या अभिजातवर्गीय प्रदर्शित करने की ललक से मुक्त, अनजान व्यक्ति के प्रश्नों के उत्तर देने की तत्परता, आत्म-नियंत्रण, मनोशारीरिक श्रम की हल्की-सी थकान और उसमें खिल पड़ने वाली मुस्कान, प्रकाश व छाया जैसे अबूझा भावों का चेहरे पर आना-जाना... और ऐसी ही बहुत सी चीजें, जिन्हें उसके संवेदनशील अवचेतन मन ने `कैच' कर लिया था और प्रेरणा या लालसा में रूपांतरित कर चेतन मन तक पहुंचा दिया था... यह मन का छलयुक्त खेल था, जिसे वह तुरंत ही नहीं समझ पाया था और अनजाने में कैरमन को आत्मीय मानकर अनावश्यक रूप से आशावान हो उठा था। लेकिन अब क्या हो सकता था! वह उसकी `लंपटता' पर नाराज थी और अपनी मूर्खता पर वह क्षुब्ध था। ज्ञ्`िकतना बड़ा धोखा कर सकता है, यह मन!' उसने सोचा था। फिर पागलों की तरह हंस पड़ने की तीका इच्छा उसके मन में पैदा हो गयी थी। वह जोर-जोर से या इस ढंग से हंसना चाहता था कि कैरमन चौंककर पूछने पर विवश हो जाती-`तुम्हारे हंसने का क्या कारण है?' लेकिन उसने अपना यह क्षणिक आवेग नियंत्रित रखा था। उसे विश्वास नहीं हो पाया था कि वह `मन के इस छलपूर्ण खेल' को `कैरमन की भाषा में कैरमन को' समझा सकेगा। यदि कैरमन उसकी हंसी से अविचलित रह जाती (योगियों के लिए सब कुछ संभव है- योगश्र्चित्त वृत्ति निरोध:) तो गहरे पश्र्चाताप में डूबने के अलावा और कोई उपलब्धि नहीं होने वाली थी। वह उसे पागल भी समझ लेती, तो कोई बड़ी बात नहीं होती। ज्ञ् `क्या मैं सचमुच सीजोफ्रेनिक हो रहा हूं?' ज्ञ्उसने सोचा था। फिर स्वयं को समझकर उसने कैरमन और अपने बीच स्थापित क्षणजीवी अंतरंगता की तत्काल अंत्येष्टि कर दी थी और सोचा था कि शीघ्र ही इस आघात से मुक्त हो जाएगा। कुछ देर बाद उसे महसूस हुआ था कि उसकी क्षुब्धता खो गयी थी और अब वह सिर्फ उदास था। दो-चार ही दिनों में यह उदासी भी खो जाएगी। `मार खाए हुए बच्चे की तरह वह सब कुछ भूल चुका होगा' ज्ञ्उसने सोचा था। गहरी सांस लेकर उसने दोनों युवतियों की तरफ देखा था। कैरमन की मित्र ने चुनी गयी किताबों का मूल्य दिया, तो शायद यह सोचकर कि इतनी देर तक बुक-स्टाल के सामने समय बिताना व्यर्थ सिद्ध न हो, कैरमन ने सिर्फ एक-दो मिनट तक देखने के बाद `गीता एकार्डिंग टू गांधी' चुन ली थी। किताब की कीमत एक सौ रुपये का नोट उसने इसकी तरफ बढ़ाया था। पहले जैसी स्थिति रही होती तो वह उस किताब के विषय में अपने विचारों से कैरमन को अवगत कराने कोशिश जरूर करता। कृत्रिम भावहीनता व्यक्त करते हुए उसने नोट लेकर कैश-बॉक्स में डाल दिया था। फिर स्वयं को पूरे रेलवे स्टेशन और उसकी हलचलों से काटकर वह एक चित्रकथा पढ़ने का अभिनय करने लगा था। किन्तु कुछ ही क्षणों में वह विचलित हो उठा था। वे दोनों स्टॉल के सामने, दो कदम दूर हटकर, पटरियों की तरफ मुंह करके अपने-अपने बैगों पर बैठ गयी थीं। अब वह उनकी पीठ ही देख सकता था। उनका इस तरह विमुख होकर बैठ जाना उसकी उदासी को और सघन कर गया था। उदासी छिपाने के लिए उसने धीरे से हंसकर मित्र से पूछा था, `तुम्हें पता है, अभी कौन-सी घटना घटी थी?' `पता है। वह लड़की कितनी साफ और सरल अंग्रेजी बोल रही थी, बिना मुंह टेढ़ा किये! मैं भी समझ रहा था, गुरु।' `नहीं यार। पता नहीं लोग क्यों बकवास करते हैं और किताबें क्यों झूठ बोलती हैं कि यूरोप-अमेरिका में... छोड़ो इसे,....बात यह थी कि मैंने उससे मित्रता का प्रस्ताव...।' `मुझे पता है। थोड़ी बहुत अंग्रेजी मैं भी समझता हूं, लेकिन अगर कोई इस लड़की की तरह ज़रा ढंग से बोले, मुंह टेढ़ा किये बिना, तो। कितनी साफ और सरल...।' तभी कुछ यात्री काउंटर के पास आ खड़े हुए थे। मित्र उन्हें संभालने में लग गया, तो कैरमन की प्रशंसा में निकलने वाले शब्दों को विराम मिल गया था। वह चित्रकथा में मन लगाने की कोशिश कर रहा था। कभी-कभी उसकी भटकती दृष्टि कैरमन पर पड़ जाती थी। वे दोनों गंभीरता से परस्पर बातें कर रही थीं। प्लेटफार्म के कोलाहल में इतनी दूर तक उनकी आवाज़ नहीं पहुंच रही थी। क्या कैरमन अपनी मित्र को ठुकरा दिये गए `अशिष्ट प्रस्ताव' के बारे में बता रही होगी? और क्या वह कैरमन की मित्र की दृष्टि में भी लंपट बन गया होगा? उसने सोचा था। जब माइक्रोफोन पर ट्रेन के कुछ ही देर में आने की घोषणा हुई, तो उसने उसकी तरफ मुड़कर देखा था और उसे अपनी तरफ देखते देख वह धीरे से सिर झुकाकर मुस्कराई थी। बेहद अर्थपूर्ण थी वह मुस्कान। कुछ विदाई जैसी, घटित हो चुके अप्रिय प्रसंग को भुला देने की आशा भरे अनुरोध-सी, अतीत में फेंक दिये गए परिचय और सद्भाव को पुन: जीवित-सी करती, व्यक्तिगत विवशता के कारण ठुकराए गए प्रस्ताव से उपजे दु:ख का शमन-सी करती और सांत्वना-सी देती। सहज प्रतिक्रिया से वह भी धीरे-से सिर झुकाकर, सहमति-सी प्रकट करता मुस्कराया था, लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ था कि उसके अंतस की कोई सकारात्मक भावना मुस्कान बनकर व्यक्त हो पायी होगी और कैरमन ने उसे देखा भी होगा। निश्र्चय ही वह सफलतापूर्वक नहीं मुस्करा पाया होगा। (बाद में शीशे के सामने उसने कई बार मुस्कराने और उस मुस्कान को देखने की कोशिश की थी, लेकिन हर बार असफल रहा था।) उसने क्या सोचा होगा? कि वह इतना अशिष्ट था कि मुस्कुरा भी नहीं सकता था? वह समझ गई होगी कि उसके बुझे हुए मन को, जिसने उसके हांेठों को मुस्कराने से रोक दिया था?... लेकिन कैरमन की मुस्कान उसके मन को उद्वेलित कर गयी थी। पुन: जब हिन्दी में, फिर अंग्रेजी में ट्रेन के शीघ्र ही आने की घोषणा हुई थी, तो वह स्टॉल से बाहर निकलकर किसी ग्राहक की तरह काउंटर से लगकर खड़ा हो गया था। घबराते हुए उसने सरसरी दृष्टि से एक-दो बार दोनों को देखा था। उस समय ट्रेन प्लेटफार्म के छोर तक पहुंच चुकी थी, जब वह उनके पास जाकर अवसाद भरे स्वर मेंज्ञ् `आपकी ट्रेन आ रही है, मैडम' कहकर तुरंत ही काउंटर के पास चला आया था। वे दोनों उठ खड़ी हुई थीं। बात यह थी कि मैंने उससे मित्रता का प्रस्ताव...।' ज्ञ् `मुझे पता है। थोड़ी बहुत अंग्रेजी मैं भी समझता हूं, लेकिन अगर कोई इस लड़की की तरह ज़रा ढंग से बोले, मुंह टेढ़ा किये बिना, तो। कितनी साफ और सरल...।' तभी कुछ यात्री काउंटर के पास आ खड़े हुए थे। मित्र उन्हें संभालने में लग गया, तो कैरमन की प्रशंसा में निकलने वाले शब्दों को विराम मिल गया था। वह चित्रकथा में मन लगाने की कोशिश कर रहा था। कभी-कभी उसकी भटकती दृष्टि कैरमन पर पड़ जाती थी। वे दोनों गंभीरता से परस्पर बातें कर रही थीं। प्लेटफार्म के कोलाहल में इतनी दूर तक उनकी आवाज़ नहीं पहुंच रही थी। क्या कैरमन अपनी मित्र को ठुकरा दिये गए `अशिष्ट प्रस्ताव' के बारे में बता रही होगी? और क्या वह कैरमन की मित्र की दृष्टि में भी लंपट बन गया होगा? उसने सोचा था। जब माइक्रोफोन पर ट्रेन के कुछ ही देर में आने की घोषणा हुई, तो उसने उसकी तरफ मुड़कर देखा था और उसे अपनी तरफ देखते देख वह धीरे से सिर झुकाकर मुस्कराई थी। बेहद अर्थपूर्ण थी वह मुस्कान। कुछ विदाई जैसी, घटित हो चुके अप्रिय प्रसंग को भुला देने की आशा भरे अनुरोध-सी, अतीत में फेंक दिये गए परिचय और सद्भाव को पुन: जीवित-सी करती, व्यक्तिगत विवशता के कारण ठुकराए गए प्रस्ताव से उपजे दु:ख का शमन-सी करती और सांत्वना-सी देती। सहज प्रतिक्रिया से वह भी धीरे-से सिर झुकाकर, सहमति-सी प्रकट करता मुस्कराया था, लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ था कि उसके अंतस की कोई सकारात्मक भावना मुस्कान बनकर व्यक्त हो पायी होगी और कैरमन ने उसे देखा भी होगा। निश्र्चय ही वह सफलतापूर्वक नहीं मुस्करा पाया होगा। (बाद में शीशे के सामने उसने कई बार मुस्कराने और उस मुस्कान को देखने की कोशिश की थी, लेकिन हर बार असफल रहा था।) उसने क्या सोचा होगा? कि वह इतना अशिष्ट था कि मुस्कुरा भी नहीं सकता था? वह समझ गई होगी कि उसके बुझे हुए मन को, जिसने उसके हांेठों को मुस्कराने से रोक दिया था?... लेकिन कैरमन की मुस्कान उसके मन को उद्वेलित कर गयी थी। पुन: जब हिन्दी में, फिर अंग्रेजी में ट्रेन के शीघ्र ही आने की घोषणा हुई थी, तो वह स्टॉल से बाहर निकलकर किसी ग्राहक की तरह काउंटर से लगकर खड़ा हो गया था। घबराते हुए उसने सरसरी दृष्टि से एक-दो बार दोनों को देखा था। उस समय ट्रेन प्लेटफार्म के छोर तक पहुंच चुकी थी, जब वह उनके पास जाकर अवसाद भरे स्वर मेंज्ञ् `आपकी ट्रेन आ रही है, मैडम' कहकर तुरंत ही काउंटर के पास चला आया था। वे दोनों उठ खड़ी हुई थीं। बात यह थी कि मैंने उससे मित्रता का प्रस्ताव...।' ज्ञ् `मुझे पता है। थोड़ी बहुत अंग्रेजी मैं भी समझता हूं, लेकिन अगर कोई इस लड़की की तरह ज़रा ढंग से बोले, मुंह टेढ़ा किये बिना, तो। कितनी साफ और सरल...।' तभी कुछ यात्री काउंटर के पास आ खड़े हुए थे। मित्र उन्हें संभालने में लग गया, तो कैरमन की प्रशंसा में निकलने वाले शब्दों को विराम मिल गया था। वह चित्रकथा में मन लगाने की कोशिश कर रहा था। कभी-कभी उसकी भटकती दृष्टि कैरमन पर पड़ जाती थी। वे दोनों गंभीरता से परस्पर बातें कर रही थीं। प्लेटफार्म के कोलाहल में इतनी दूर तक उनकी आवाज़ नहीं पहुंच रही थी। क्या कैरमन अपनी मित्र को ठुकरा दिये गए `अशिष्ट प्रस्ताव' के बारे में बता रही होगी? और क्या वह कैरमन की मित्र की दृष्टि में भी लंपट बन गया होगा? उसने सोचा था। जब माइक्रोफोन पर ट्रेन के कुछ ही देर में आने की घोषणा हुई, तो उसने उसकी तरफ मुड़कर देखा था और उसे अपनी तरफ देखते देख वह धीरे से सिर झुकाकर मुस्कराई थी। बेहद अर्थपूर्ण थी वह मुस्कान। कुछ विदाई जैसी, घटित हो चुके अप्रिय प्रसंग को भुला देने की आशा भरे अनुरोध-सी, अतीत में फेंक दिये गए परिचय और सद्भाव को पुन: जीवित-सी करती, व्यक्तिगत विवशता के कारण ठुकराए गए प्रस्ताव से उपजे दु:ख का शमन-सी करती और सांत्वना-सी देती। सहज प्रतिक्रिया से वह भी धीरे-से सिर झुकाकर, सहमति-सी प्रकट करता मुस्कराया था, लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ था कि उसके अंतस की कोई सकारात्मक भावना मुस्कान बनकर व्यक्त हो पायी होगी और कैरमन ने उसे देखा भी होगा। निश्र्चय ही वह सफलतापूर्वक नहीं मुस्करा पाया होगा। (बाद में शीशे के सामने उसने कई बार मुस्कराने और उस मुस्कान को देखने की कोशिश की थी, लेकिन हर बार असफल रहा था।) उसने क्या सोचा होगा? कि वह इतना अशिष्ट था कि मुस्कुरा भी नहीं सकता था? वह समझ गई होगी कि उसके बुझे हुए मन को, जिसने उसके हांेठों को मुस्कराने से रोक दिया था?... लेकिन कैरमन की मुस्कान उसके मन को उद्वेलित कर गयी थी। पुन: जब हिन्दी में, फिर अंग्रेजी में ट्रेन के शीघ्र ही आने की घोषणा हुई थी, तो वह स्टॉल से बाहर निकलकर किसी ग्राहक की तरह काउंटर से लगकर खड़ा हो गया था। घबराते हुए उसने सरसरी दृष्टि से एक-दो बार दोनों को देखा था। उस समय ट्रेन प्लेटफार्म के छोर तक पहुंच चुकी थी, जब वह उनके पास जाकर अवसाद भरे स्वर मेंज्ञ् `आपकी ट्रेन आ रही है, मैडम' कहकर तुरंत ही काउंटर के पास चला आया था। वे दोनों उठ खड़ी हुई थीं। बात यह थी कि मैंने उससे मित्रता का प्रस्ताव...।' ज्ञ् `मुझे पता है। थोड़ी बहुत अंग्रेजी मैं भी समझता हूं, लेकिन अगर कोई इस लड़की की तरह ज़रा ढंग से बोले, मुंह टेढ़ा किये बिना, तो। कितनी साफ और सरल...।' तभी कुछ यात्री काउंटर के पास आ खड़े हुए थे। मित्र उन्हें संभालने में लग गया, तो कैरमन की प्रशंसा में निकलने वाले शब्दों को विराम मिल गया था। वह चित्रकथा में मन लगाने की कोशिश कर रहा था। कभी-कभी उसकी भटकती दृष्टि कैरमन पर पड़ जाती थी। वे दोनों गंभीरता से परस्पर बातें कर रही थीं। प्लेटफार्म के कोलाहल में इतनी दूर तक उनकी आवाज़ नहीं पहुंच रही थी। क्या कैरमन अपनी मित्र को ठुकरा दिये गए `अशिष्ट प्रस्ताव' के बारे में बता रही होगी? और क्या वह कैरमन की मित्र की दृष्टि में भी लंपट बन गया होगा? उसने सोचा था। जब माइक्रोफोन पर ट्रेन के कुछ ही देर में आने की घोषणा हुई, तो उसने उसकी तरफ मुड़कर देखा था और उसे अपनी तरफ देखते देख वह धीरे से सिर झुकाकर मुस्कराई थी। बेहद अर्थपूर्ण थी वह मुस्कान। कुछ विदाई जैसी, घटित हो चुके अप्रिय प्रसंग को भुला देने की आशा भरे अनुरोध-सी, अतीत में फेंक दिये गए परिचय और सद्भाव को पुन: जीवित-सी करती, व्यक्तिगत विवशता के कारण ठुकराए गए प्रस्ताव से उपजे दु:ख का शमन-सी करती और सांत्वना-सी देती। सहज प्रतिक्रिया से वह भी धीरे-से सिर झुकाकर, सहमति-सी प्रकट करता मुस्कराया था, लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ था कि उसके अंतस की कोई सकारात्मक भावना मुस्कान बनकर व्यक्त हो पायी होगी और कैरमन ने उसे देखा भी होगा। निश्र्चय ही वह सफलतापूर्वक नहीं मुस्करा पाया होगा। (बाद में शीशे के सामने उसने कई बार मुस्कराने और उस मुस्कान को देखने की कोशिश की थी, लेकिन हर बार असफल रहा था।) उसने क्या सोचा होगा? कि वह इतना अशिष्ट था कि मुस्कुरा भी नहीं सकता था? वह समझ गई होगी कि उसके बुझे हुए मन को, जिसने उसके हांेठों को मुस्कराने से रोक दिया था?... लेकिन कैरमन की मुस्कान उसके मन को उद्वेलित कर गयी थी। पुन: जब हिन्दी में, फिर अंग्रेजी में ट्रेन के शीघ्र ही आने की घोषणा हुई थी, तो वह स्टॉल से बाहर निकलकर किसी ग्राहक की तरह काउंटर से लगकर खड़ा हो गया था। घबराते हुए उसने सरसरी दृष्टि से एक-दो बार दोनों को देखा था। उस समय ट्रेन प्लेटफार्म के छोर तक पहुंच चुकी थी, जब वह उनके पास जाकर अवसाद भरे स्वर मेंज्ञ् `आपकी ट्रेन आ रही है, मैडम' कहकर तुरंत ही काउंटर के पास चला आया था। वे दोनों उठ खड़ी हुई थीं। भी लंपट बन गया होगा? उसने सोचा था। जब माइक्रोफोन पर ट्रेन के कुछ ही देर में आने की घोषणा हुई, तो उसने उसकी तरफ मुड़कर देखा था और उसे अपनी तरफ देखते देख वह धीरे से सिर झुकाकर मुस्कराई थी। बेहद अर्थपूर्ण थी वह मुस्कान। कुछ विदाई जैसी, घटित हो चुके अप्रिय प्रसंग को भुला देने की आशा भरे अनुरोध-सी, अतीत में फेंक दिये गए परिचय और सद्भाव को पुन: जीवित-सी करती, व्यक्तिगत विवशता के कारण ठुकराए गए प्रस्ताव से उपजे दु:ख का शमन-सी करती और सांत्वना-सी देती। सहज प्रतिक्रिया से वह भी धीरे-से सिर झुकाकर, सहमति-सी प्रकट करता मुस्कराया था, लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ था कि उसके अंतस की कोई सकारात्मक भावना मुस्कान बनकर व्यक्त हो पायी होगी और कैरमन ने उसे देखा भी होगा। निश्र्चय ही वह सफलतापूर्वक नहीं मुस्करा पाया होगा। (बाद में शीशे के सामने उसने कई बार मुस्कराने और उस मुस्कान को देखने की कोशिश की थी, लेकिन हर बार असफल रहा था।) उसने क्या सोचा होगा? कि वह इतना अशिष्ट था कि मुस्कुरा भी नहीं सकता था? वह समझ गई होगी कि उसके बुझे हुए मन को, जिसने उसके हांेठों को मुस्कराने से रोक दिया था?... लेकिन कैरमन की मुस्कान उसके मन को उद्वेलित कर गयी थी।
पुन: जब हिन्दी में, फिर अंग्रेजी में ट्रेन के शीघ्र ही आने की घोषणा हुई थी, तो वह स्टॉल से बाहर निकलकर किसी ग्राहक की तरह काउंटर से लगकर खड़ा हो गया था। घबराते हुए उसने सरसरी दृष्टि से एक-दो बार दोनों को देखा था। उस समय ट्रेन प्लेटफार्म के छोर तक पहुंच चुकी थी, जब वह उनके पास जाकर अवसाद भरे स्वर मेंज्ञ् `आपकी ट्रेन आ रही है, मैडम' कहकर तुरंत ही काउंटर के पास चला आया था। वे दोनों उठ खड़ी हुई थीं।
कैरमन ने एक बार मद्धिम होती ट्रेन की तरफ उलझनभरी दृष्टि से देखा था, फिर जैसे किसी निर्णय पर पहुंचकर शर्ट की जेब से कलम निकालते हुए उसके पास चली आयी थी। ज्ञ् `पेपर।' उसने कहा था। बस, यही तो घटा था, चंद घंटे पहले, लेकिन बहुत कुछ घटित होने से रह भी गया था। वह राइटिंग-टेबल पर अपनी कुहनियां टिकाये और चेहरा हथेलियों के बीच लिए अंधेरे में घूर रहा था। अपने देश जाती कैरमन के समक्ष उसने कोई शुभकामना नहीं व्यक्त की थी। क्या सोचा होगा, उसने? मित्रता की योग्यता से सर्वथा रहित? कम से कम `शुभ यात्रा' जैसे दो शब्दों का उच्चारण तो करना ही चाहिए था। ऐसे व्यक्ति को कोई युवती कैसे अपना मित्र स्वीकार करेगी, जो शिष्टाचार और उचित व्यवहार करना भी नहीं जानता? सचमुच यह उसकी अशिष्टता थी। नहीं, यह सब उसकी मूढ़ता थी। वह चिल्लाकर कहना चाहता थाज्ञ् `मैं मूढ़ हूं।' अंतत: उसने तय किया था कि पत्र लिखकर शुभकामनाएं व्यक्त करने से उसकी अशिष्ट भूलें सुधर जाएंगी। भावातुर होकर उसने लैंप का स्विच दबाकर मेज पर प्रकाश का एक वृत्त उत्पन्न किया था और राइटिंग पैड के पीले कागजों को देखते हुए पत्र की विषय-वस्तु और प्रयोग किये जाने वाले शब्दों के विषय में सोचने लगा था। क्या वह इतनी संप्रेषणीय अंग्रेजी लिख सकेगा, जिसमें उसके सभी मनोभाव कैरमन के समक्ष व्यक्त हो जाएं? लेकिन पत्र तो लिखना ही होगा। इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग भी तो नहीं था। फिर वह लिखता चला गया थाज्ञ् `प्रिय कैरमन, नमस्कार और शुभ यात्रा, (`शुभ-यात्रा' को रेखांकित किया था), ये रेखांकित शब्द अब से छह घंटे पहले भी मेरे मन में उत्पन्न हुए थे (यह झूठ था), जब तुम वाराणसी से प्रस्थान कर रही थीं। इस क्षण, जब तुम अभी दिल्ली भी नहीं पहुंची हो, मैं यह पत्र अनुग्रह के साथ लिख रहा हूं। मैं सच ही तुम्हारी मित्रता पाकर अनुगृहीत हूं। मैं उस क्षण निराश नहीं हुआ था (यह भी झूठ था), जब मित्रता के मेरे अनुरोध पर तुम चुप रह गयी थी। तुम्हें वह क्षण याद होगा। फिर अप्रत्याशित उपहार की भांति प्रस्थान के समय हड़बड़ी में तुमने अपना पता दिया था और तत्क्षण ही प्लेटफार्म पर आकर रुक रही ट्रेन की तरफ चल पड़ी थीं। मैं तुम्हारी अबूझ करुणा से सम्मोहित और जड़वत हो गया था। अब मैं समझ पाने में असमर्थ हूं कि क्या सोचकर तुमने मेरे आधे घंटे पुराने अनुरोध को स्वीकार कर लिया था। यह करुणा थी? दया थी? मित्रता की स्वीकृति थी? या उस स्नेह का प्रतिदान था, जिसे तुमने मेरी आंखों में देखा? उस समय मुझे तुमसे कुछ भी नहीं पूछना था। मेरे मन में सिर्फ तुम्हारी मित्रता की आकांक्षा थी और चाहता था कि कोई ऐसा दूरस्थ हो, जिसे मैं पत्र लिखकर और जिसके पत्र पाकर स्वयं को आंतरिक रूप से समृद्ध महसूस करूं। मुझे लगा था कि तुममें कोई ऐसी चीज थी, जो मेरे अंतर्जगत से मेल खाती थी। अब मुझे लगता है कि तुम्हें ध्यानपूर्वक न देखकर मैंने कितनी बड़ी गलती की है। मुझे नहीं पता था कि मित्रता का यह उपहार आश्र्चर्यजनक रूप से अंतिम क्षणों में पा सकूंगा, अन्यथा मैं तुम्हें विमुख होकर बैठने नहीं देता, हालांकि तब मेरी यह क्रिया बेहद निचले स्तर की होती और मैं निश्र्चित ही तुम्हारी मित्रता से हाथ धो बैठता। यह तो तलवार के धार पर चलने जैसी बात थी। खैर, अब यह स्थिति है कि मैं तुम्हारा चेहरा याद करने की कोशिश करता हूं, तो पूरी तरह मेरी स्मृति में स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। तुम शायद इस पीड़ा का अनुमान लगा सको। मैं व्यथित हूं क्योंकि जानता हूं कि तुम दुबारा यहां नहीं आओगी और दुबारा मैं तुम्हें नहीं देख पाऊंगा। कई कारण जैसेज्ञ् धन, आवश्यकता, इच्छा, समय, दूरी आदि तुम्हारे पुन: आ सकने में बाधक होंगे। अब मेरे मन में बहुत से प्रश्न, जिज्ञासाएं, इच्छाएं हैं, अपने मित्र के मन के उस कोने के विषय में, जहां वह अपने मन और आत्मा की समस्त अच्छाइयों के साथ रहती हैं। मैं तुम्हारे विश्वास, मान्यताएं, जीवन-शैली, रुचियां आदि जानना चाहता हूं। तुमने बताया था कि भारत यात्रा की तैयारी में तुम्हें बहुत समय लगा था। इसके लिए तुमने कौन-कौन से काम किये, कितना अर्जित किया और कितना बचायाज्ञ् मैं तुम्हारे इस संघर्ष को भी जानना चाहता हूं। किन्तु मित्रता स्थापित करने का उद्देश्य सिर्फ यही सब जानना नहीं है, बल्कि यह तो बहाना है उस मित्रता को स्थायी या दीर्घजीवी बनाने का, जिसकी पुष्टि अभी तुम्हारी तरफ से होनी बाकी है और जिसे मैं अपनी तरफ से स्थापित कर चुका हूं। अभी, इस क्षण से कुछ क्षण पहले तक, जब इतना लिखकर मैं स्वयं को उत्साहित और हल्का-फुल्का महसूस कर रहा था और तुम्हारे विषय में सोचने लगा था, तो पाया कि एक नयी भावना (बेहद नयी नहीं, क्योंकि पैंतीस वर्ष यूं ही नहीं बीत गये हैं) मेरे भीतर धीरे-धीरे घर करने लगी है। यह प्रेम है, जिससे मैं इनकार नहीं करता। लेकिन इस प्रेम में मैं न तो गिरा हूं, न ही गिरूंगा, बल्कि सिर्फ उठना ही होगा। क्या तुम विश्वास करोगी कि यह प्रेम अभी उत्पन्न हुआ है, तुम्हारे प्रस्थान के सात घंटे बाद। इस प्रेम को मैंने बिना किसी संकोच के स्वीकार किया है क्योंकि मैं एक स्मृति से प्रेम कर रहा हूं। तुम मेरे लिए एक सुखद स्मृति हो। शायद यह सब तुम्हें अजीब और अप्रिय भी लगे, लेकिन कोशिश करना, इन भावनाआें से बचने की। मुझे लगता है कि तुमने व्यावसायिक उद्देश्य से योग-प्रशिक्षण लिया है। क्या तुम योग-केन्द्र या क्लिनिक खोलना चाहती हो? संभवत: यह तुम्हारे जीवन का संघर्ष है। मैं तुम्हें अपने संघर्ष और उपलब्धियों के विषय में बताना चाहूंगा। वर्तमान नौकरी मैं पिछले सोलह वर्षों से कर रहा हूं, किन्तु कभी इससे संतुष्ट नहीं हो पाया। कठोर परिश्रम और सिर्फ जीने भर लायक आय, इससे जीवन सुखी नहीं हो सकता। नौकरी के कारण छूट चुकी शिक्षा मैंने सात-आठ वर्ष पहले पुन: शुरू की, नौकरी करते हुए। बी. ए., एम. ए. और बी. एड्. की उपाधियां प्राप्त करने के बाद मैंने अखिल भारतीय स्तर की परीक्षा में भाग लिया और चंद सफल लोगों में मेरा नाम आ गया, जिन्हें शिक्षक पद के लिए चुना गया है। नियुक्ति आदेश मिलना सिर्फ वक्त की बात है। इससे मेरी आय में एकाएक ही पच्चीस प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी। लड़खड़ाते दिनों के दुष्प्रभाव से मुक्त होकर किस तरह मैं यह कर पाया, यदि चाहोगी तो अगले पत्र में बता दूंगा। मेरे परिवार में पत्नी, एक पुत्र, एक पुत्री और मां हैं। जब मैं अठारह वर्ष का ही था, तब मेरे पिता का देहावसान हो गया था। अत: मुझे नौकरी करनी पड़ी। प्रशासनिक फेरबदल के कारण तीन माह पूर्व ही मैं वाराणसी से पांच सौ किलोमीटर दूर बोकारो स्थानांतरित कर दिया गया हूं। इन दिनों वाराणसी में रह रहे अपने परिवार के साथ छुटि्टयां बिता रहा हूं। एक सप्ताह के बाद बोकारो चला जाऊंगा। संभव है जब मुझे तुम्हारा पत्र मिले, तब तक मैं शिक्षक बन चुका होऊं और हैदराबाद या दक्षिण भारत के किसी अनजान नगर में नौकरी कर रहा होऊं। इसलिए बुक स्टॉल के पते पर ही पत्र भेजना। मेरा बहुप्रतीक्षित नियुक्ति-पत्र भी वहीं के पते पर आएगा। अब मैं दो पत्रों की प्रतीक्षा करूंगा। मैं नहीं जानता कि भारत यात्रा के तुम्हारे अनुभव क्या और कैसे रहे। तुम्हें कहीं ऐसा तो नहीं लगा कि तुम छली गई हो? गीता, गांधी और योग के विषय में तुम अपने विचार दे सको तो मुझे अच्छा लगेगा। आशा करता हूं कि मैं तुम्हें तुम्हारी हस्तलिपि में देख सकूंगा, तुम्हारे मौन वाक्यों में तुम्हें सुन सकूंगा और यदि भाग्यशाली होऊंगा तो अपने फैमिली एल्बम के लिए तुम्हारे कुछ फोटोग्राफ्स भी पाऊंगा, जिनके पीछे तुमने कुछ शब्द लिखे होंगे। सस्नेह अस्पष्ट हस्ताक्षर पत्र रात को एक बजे पूरा हुआ था। वह स्वयं को सभी व्यथाआें से मुक्त महसूस करने लगा था। कुछ देर बाद उसने पत्र पढ़ा तो प्रथम दृष्टि में ही वह उसे प्रेम-पत्र लगा था। उसे भय हुआ था कि कहीं कैरमन उसे सिर्फ प्रेम-पत्र न समझ ले। विवाहित और दो बच्चों के पिता के लिए एक युवती के प्रति इतनी भावुक होना किसी भी तरह अच्छी बात नहीं थी। ऐसा पत्र लिखकर वह कैरमन की दृष्टि में `रिकार्डेड लंपट' सिद्ध हो जाने वाला था। उसने निश्र्चय किया कि सुबह उठते ही वह पत्र फिर से लिखेगा, जिसमें नियंत्रित आत्मीयता व्यक्त हो, किंतु प्रेम का कहीं उल्लेख न हो। इस निर्णय के बाद वह निश्र्चिंत होकर सो गया। रविवार की सुबह उसे अपने मन में आनंद की लहरें महसूस हुई थीं।
उसके तनाव मुक्त मन को भावनाआें ने इतनी तीकाता से अभिभूत कर लिया था दुबारा पत्र लिखते समय वह पहले पत्र की विषय वस्तु पूरी तरह भूल गया। नये पत्र में भावुकता की मात्रा पहले की अपेक्षा कई गुनी बढ़ गया थी और प्रेम, जिसे नेपथ्य में रहना था, कई एक वाक्यों में स्पष्टत: मुखर हो गया था। क्यों वह खुद को छिपाये! यह सोचकर उसने पुन: समीक्षा किये बिना सोमवार को रजिस्टर्ड एयर मेल से वह पत्र भेज दिया था। `इतनी शीघ्र यह पत्र पाकर कैरमन कितनी विस्मित होगी!' उसने सोचा था और खुशी से उछल पड़ा था। वह अपने भीतर एक विशेष प्रकार का उल्लास भरा उन्नयन महसूस करने लगा था। पत्नी और बच्चों के प्रति वह मैत्रीपूर्ण तो था ही, अब उनके प्रति और संवेदनशील और प्रेमपूर्ण हो गया था। हर क्षण कैरमन उसकी चेतना पर एक खुशनुमा स्मृति की तरह छायी रहती थी। उसमें कर्त्तव्य भावना खो गयी थी और बदले में वह प्रत्येक कार्य के प्रति श्रद्धा और अहोभाव से भर उठा था। आस पास बिखरी प्रकृति और सूरज के आने जाने में उसे भावपूर्ण सौंदर्य महसूस होने लगा था। रास्ते में मिलने वाले अल्पपरिचितों से भी वह सोत्साह और प्रेमपूर्ण होकर मिलने लगा था। वह स्वयं को सभी दिशाआें में अपनी धन्यता और प्रेम विकेंद्रित करने वाला सृष्टि का एक ऐसा केेंद्र महसूस करने लगा था जिसके ईद-गिर्द हजार रंगों वाला एक इंद्रधनुष अपनी भावपूर्ण उपस्थित बनाए रखता है। कभी-कभी वह स्वयं को प्रखर रूप से आलोकित महसूस करता तो उसे लगता कि वह ऐसे अंतहीन सुख और अक्षय आनन्द में सदैव डूबा रहेगा। कभी-कभी जब वह आत्म-निरीक्षण की स्थिति में होता, यद्यपि ऐसा दो-तीन बार ही हुआ था, तो कोशिश करने पर भी सत्रह मार्च से पूर्व की अपनी मन:स्थिति की कल्पना नहीं कर पाता और उसे काल्पनिक रूप से महसूस करना तो सर्वथा असंभव लगने लगा था। उसे सिर्फ इतना याद आता कि तब कैरमन और उसकी जीवंत स्मृति नहीं थी। तब क्या था? पता नहीं क्या था, लेकिन वह अतीत के उन मूल्यहीन क्षणों में पुन: लौटने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। यह ऐसी स्थिति थी, जिसमें वह अपनी समस्त नकारात्मक भावनाआें से छुटकारा पा गया था। सीजोफ्रेनिक मन एक भावपूर्ण अस्मिता में एकत्रित होकर बंध गया था, जहां अप्रिय अनुभूतियां खो गयी थीं। उसे लगता था कि एक दिन, जब वह नहीं रहेगा, तब भी उसकी आनंदित चेतना इसी तरह स्पंदित होती रहेगी। उसके मन का एक अवचेतन कोना कैरमन के पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था, चुपचाप, बिना बताए, चेतन मन को कोई संकेत दिये बिना। पिछले एक दशक से स्थापित दिनचर्या के अनुसार वह अब भी दोपहर होते ही रेलवे स्टेशन पहुंच जता था। कैरमन अक्सर उसके और मित्र के बीच वार्ता का विषय बन जाती थी। दो-तीन बार वह उसके मध्यमवर्गीय होने की चर्चा कर चुका था, जैसा कि उसने कल्पना में ही `देखा' और `स्थापित' किया था। बहुधा वह स्टॉल में बैठा-बैठा अंग्रेजी का कोई रोचक उपन्यास पढ़ता रहता था और बीच-बीच में उसकी दृष्टि काउंटर से लगकर खड़े ग्राहकों के पीछे प्लेटफार्म पर भटकती रहती थीं। चौथे दिन उसे महसूस हुआ था कि अब उसके स्टेशन आने के उद्देश्य में परिवर्तन आ चुका था। पहले की तरह विदेशियों में अब उसे कोई आकर्षण नहीं दिखाई पड़ता था। अब वह वहां एक अनजानी-सी आशा लेकर जाता था, कैरमन से पुन: मिल पाने की। इस तथ्य के उद्घाटन से वह चौंक पड़ा था। क्यों और कैसे वह भूल गया था कि वह तो चार दिन पहले ही दिल्ली जा चुकी थी और अब तक वह अपने नगर कैलगरी, अलबर्टा, कनाडा पहुंच चुकी होगी। अपनी इस दशा पर उसे विशेष प्रकार का विनोद महसूस हुआ था और वह मन ही मन हंस पड़ा था। जब वह घर में होता तो बच्चों के साथ खेलता रहता या पत्नी को आलिंगन में बांधे हार्दिक भावनाआें का सुखद प्रवाह महसूस करता रहता था। बाकी समय हिन्दी-अंग्रेजी और अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश तथा हाई स्कूल इंग्लिश ग्रामर पढ़ता रहता। उसका अंग्रेजी ज्ञान द्रुतगति से बढ़ रहा था। उसने कैरमन को एक और पत्र लिखा था, अपनी उस मूर्खता का विनोदपूर्ण वर्णन करते हुए, जब वह चार दिनों तक अनजाने में उसे प्लेटफार्म पर खोजता रहा था। दो-तीन वर्ष पुरानी एक घटना का भी विस्तार से उल्लेख किया था, जब उससे बातचीत के चक्कर में दो डच युवतियों की ट्रेन छूट गयी थी और उन्होंने उसे खूब फटकारा था। पत्र में उसने स्पष्टत: लिखा था कि इन घटनाआें के विषय में बताने का उद्देश्य कैरमन को हंसाना था और यदि वह नहीं हंस पाती तो थोड़ी-सी छूट देते हुए उसकी मुस्कान को ही हंसी के रूप में स्वीकार कर लेगा। अंत में उसने हजार रंगों वाले उस अदृश्य इन्द्रधनुष का वर्णन किया था, जिसे वह सदैव अपने ईद-गिर्द महसूस कर रहा था। उल्लास भरा यह पत्र उसने साधारण डाक से भेज दिया था। कैरमन के जाने के पांचवे दिन वह पत्नी और बच्चों को सुरक्षा की दृष्टि से सतर्क रहने का निर्देश और सप्ताह में चार बार फोन पर संपर्क करने का आश्वासन देकर अपनी दैनिक आवश्यकताआें की चीजों के साथ शब्द-कोश, डायरी, राइटिंग पैड आदि लेकर बोकारो के लिए रवाना हो गया था। सात घंटे की यात्रा में उसने तीन छोटी-छोटी कविताएं अंग्रेजी में अनूदित की थीं। पिछले तीन महीनों में यह उसका बोकारो का सातवां फेरा था। इससे पहले बोकारो इतना खुशनुमा उसे कभी नहीं लगा था। पथरीली पहाड़ियों पर बिखरे पलाश-समूह न जाने किसके लिए निपट अकेले में खिल उठे थे और उनकी रक्ताभ मुस्कान उसने अपने अंतस में प्रविष्ट होती महसूस की थी। इस यात्रा के दौरान उसे कभी-कभी कैरमन की याद आयी थी। वह अधिकांश समय अपने समग्र अस्तित्व को अनिवर्चनीय आनंद में डूबा महसूस करता रहा था। क्या प्रेम एक दर्पण है, जो प्रकृति के भावपूर्ण सौंदर्य को प्रतिभासित करता है? या एक सूक्ष्म मन:स्थिति मात्र है, जहां प्रेम के पात्र का होना अनिवार्य नहीं होता? मन में उठे इन प्रश्नों ने उसे प्रेमानुभूति के प्रति एक नयी दृष्टि दी थी। `सर्वाधिक सुखी प्रेमी वे होते हैं जो कभी नहीं मिलते'ज्ञ्वह इस तथ्य का साक्षी बन रहा था। बोकारो थर्मल पावर स्टेशन का पूरा टाउनशिप खंडहर की तरह उजड़ा, सड़कें राख और कोयले के कणों से बदरंग और आसमान चिमनियों से निकलते सघन धुएं से मटमैला था। सैकड़ों वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में विस्तृत कोयले की खदानों की कालिमा हवा और पानी में घुल गयी थी। उस अंचल के पेड़-पौधे अपनी स्वाभाविक हरितिमा भूलकर काले हो गये थे। दामोदर नदी की धारा क्षीण और रुग्ण हो गयी थी। ऐसे वातावरण में पहले के सभी फेरों में उसे उदासी ही मिली थी। इस बार उसने बोकारो के विस्तार में संघर्ष का एक अदृष्ट सौंदर्य देखा था। स्कूल (जिसके ऑफिस में वह जूनियर क्लर्क था) से लौटने के बाद वह बड़े मनोयोग से रसोई का काम करता और भोजन से निवृत्त होकर प्राय: कुछ न कुछ लिखता रहता था। कभी कैरमन को पत्र लिखता (यद्यपि डाक में कभी नहीं डालता और इस तरह पन्द्रह-सोलह पत्र तैयार हो गये थे।) या फिर एक समय प्रिय रही कविताआें के अंग्रेजी अनुवाद तैयार करता। ये अनुवाद उसके अपने सुख के लिए और कैरमन को भेजने के लिए होते। एक पन्ने पर एक कविता और ऊपर कोने में `रीड फॉर प्लेजर' का संक्षिप्त निर्देश लिखता। कविताआें के साथ भेजने के लिए उसने एक पत्र भी लिखकर रखा था, जो थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ तब भेजा जाना था, जब वाराणसी से पुस्तक विक्रेता मित्र कैरमन का पत्र उसके पास भेज देता। वह शाम को अक्सर पत्नी और बच्चों से फोन पर बातें किया करता था। एक दिन पत्नी ने उसके वाराणसी आने की संभावित तिथि के विषय में प्रश्न किया तो उसे लगा था कि इस बार का बोकारो प्रवास पहले के सभी प्रवासों की अपेक्षा दोगुना लंबा हो गया था। बाइस दिन बीत चुके थे और उसे एक बार भी अपना एकाकी होना नहीं अखरा था। तेइसवें दिन शाम को टाउनशिप के छोटे-से बाज़ार में टहलते हुए उसे लगा था कि पत्र भेजे अच्छा-खासा अंतराल बीत चुका था और अब तक तो उसका जवाब आ जाना चाहिए था। बहुत डरते हुए उसने उसी दिन रात को पुस्तक विक्रेता मित्र को फोन किया, तो औपचारिक बातों में ही तीन-चार मिनट गंवा दिये। वह कैरमन के पत्र के विषय में नहीं पूछ पाया और न ही मित्र ने कुछ कहा। सहसा वह शंकाकुल हो उठा था... कहीं ऐसा तो नहीं था कि सत्रह मार्च को प्रस्थान के अंतिम क्षणों में कैरमन को मजाक सूझा हो और उसने एक `लंपट' और `बनारसी ठग' को मज़ा चखाने के लिए कल्पित पता दे दिया हो? कहीं ऐसा तो नहीं था कि उसे वे पत्र मिले ही न हों और कैलगरी के `डेड लेटर आफिस' में पड़े हों, यद्यपि पहला पत्र रजिस्टर्ड था। कहीं ऐसा तो नहीं था कि कैरमन का नाम कैरमन ही न रहा हो और उसने अपने किसी मित्र का पता दे दिया हो और पता नहीं वह मित्र महिला होगी या पुरुष? पता नही कनाडा में कैलगरी नाम का कोई स्थान होगा भी या नहीं? हजारों संभावनाएं थीं। इन सबके विपरीत यह भी तो संभव था कि कैरमन को पत्र लिखने का समय न मिला हो। संभव था कि उसके पास कोई अच्छा फोटाग्राफ न रहा हो और भेजने के लिए उसने फोटो खिंचवाया हो, लेकिन फोटोग्राफर से ले न पायी हो। संभव था कि इसके प्रेम व भावों से भरे पत्रों से वह नाराज हो गयी हो...। जो भी हो, जब तक उसकी प्रतीक्षा खंड-खंड होकर बिखर नहीं जाती, वह प्रतीक्षा करता रहेगा, निराश-हताश नहीं होगा। यही क्या कम था कि बोकारो उसे सुंदर लगने लगा था और पत्नी बच्चों से वियुक्त होने के बाद भी वह एकाकी होने की उन यातनाआें से बचने में सफल रहा था, जिन्होंने उसे पिछले छह फेरों में आंतरिक रूप से जर्जर कर दिया था। एक बार पुन: वह कैरमन के प्रति अनुग्रह एवं प्रेम के भावों से भर उठा था, जो अमूर्त रूप से उसके साथ थी। अगले दिन स्कूल की लाइब्रेरी में कविताआें की तलाश करते हुए उसे कनाडा के भूगोल के विषय में थोड़ी-सी जानकारी मिली, तो वह आश्र्चर्यचकित रह गया था। कनाडा की पश्र्चिमी तरफ, रॉकी पर्वतमाला के विस्तार में आने वाला अलबर्टा कोयले, प्राकृतिक गैस और खनिज तेल की दृष्टि से समृद्ध प्रांत निकला और कैलगरी उसका एक नगर। उसे लगा था कि उसके और कैरमन के वातावरण में बहुत-सी समानताएं थीं। शायद कैलगरी की दक्षिणी-पश्र्चिमी सरसी रोड भी बोकारो की सड़कों की तरह राख और कोयले के कणों से बदरंग हो और उसका आसमान भी बोकारो के आसमान की तरह मटमैला हो। यदि ऐसा है तो वह वहां कैसे रह पाती होगी। वह कई दिनों तक अलबर्टा के भूगोल के विषय में पढ़ता और कनाडा का नक्शा देखता रहा था। उस देश के प्रांतों, नदियों, झीलों, पर्वतों, समुद्र तटीय क्षेत्रों आदि के नाम और उनकी स्थितियां उसकी स्मृति में बैठ गयी थीं। फिर भी वह हर बार एक नयी रुचि के साथ उस नक्शे को देखता, मानों किसी भी क्षण उसमें कैलगरी की दक्षिणी-पश्र्चिमी सरसी रोड और उस पर गुजरती कैरमन दिखाई प़़ड जाएगीी। वह कैरमन के पत्र की जितनी प्रतीक्षा करता, उसके आनंद का उतना ही क्षरण होता जाता। तीका अनुभूतियों और उत्कट प्रतीक्षा में उसकी अस्मिता इतनी दब चुकी थी कि स्मृति-पटल से कैरमन का चेहरा और धूमिल होने लगा था। लाख कोशिशों के बावजूद वह उसका चेहरा याद कर पाने में असमर्थ रहा था। कभी-कभी सपनों में उसे विदेशी युवतियां दिखायी पड़तीं, लेकिन उनमें से कोई कैरमन नहीं होती। एक सपने में उसने स्वयं को कैनेडियन पैसिफिक रेलवे में अंतहीन सफर करते पाया था और साथ ही वह पश्र्चाताप से पीड़ित भी था कि उसने व्यर्थ ही पूर्वी छोर के शुरुआती स्टेशन सेंट जॉन से यात्रा आरम्भ की थी। उसे वैंकूवर से ट्रेन पकड़नी चाहिए थी, तब वह शीघ्र ही कैलगरी पहुंच जाता। यह बोध बेहद यातनादायी था और जब उसे लगा कि कैलगरी आने वाला था, तभी उसकी नींद खुल गयी थी। एक अन्य सपने में उसने स्वयं को एडमांटन के निर्जन एयरपोर्ट पर पाया था, बेहद अकेला। वह कैरमन का पता भूल चुका था। फिर किसी सुनसान सड़क की चाय-पकौड़े की फुटपाथिया दूकान पर उसे एक विपन्न भारतीय मिला था, जिसने उससे कहा थाज्ञ् `यहां कोई नहीं रहता।' इन दु:स्वप्नों से विचलित होकर उसने कैरमन को छोटा-सा पत्र लिखा थाज्ञ् `देखो, मैंने तुम्हारे लिए कुछ भारतीय कविताएं अनूदित की हैं। शायद तुम इन्हें पसंद करो। मैं तुम्हें नहीं, तुम्हारा चेहरा भूल चुका हूं। शायद तुम मेरे पत्रों से परेशान हो गयी हो। क्षमा करना। मेरे लिए प्रेम करना ज्यादा सुखद था और है, न कि प्रेम की लालसा करना। मैंने यह नहीं सोचा था और कि यह मित्रता इतनी अल्पजीवी होगी और शुरुआत से पहले इसका समापन हो जाएगा। मैं अपनी अस्मिता के केन्द्र से ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि तुम अपने व्यवसाय में सफलता व समृद्धि प्राप्त करो तथा तुम्हारा जीवन तृप्तिपूर्ण व आनंदित हो।' तीस दिनों के बोकारो-प्रवास के बाद जब वह एक सप्ताह का अवकाश लेकर अपने परिवार के पास प्रकाश के नगर वाराणसी लौट रहा था तो उसे जंगलों में पलाश के रक्ताभ फूल नहीं दिखायी पड़े थे। -`कोई चिट्ठी? हैदराबाद या कनाडा से?' - `नहीं गुरु!' क्या उसे यही उत्तर मिलना था? नहीं, वह जरूर लिखेगी, उसने सोचा था। संभव था, वाराणसी पहुंचते ही दोनों ही स्थानों से संभावित पत्र भी पहुंच जाए। सुखद संयोग की इस आशा ने एकाएक उसे उमंग से भर दिया था। मित्र ने चाय का प्याला उसकी तरफ बढ़ाया। - `इस बार इतनी देर से क्यों आए गुरु?' - `यूं ही।' उसने धीरे से कहा और चाय पीने लगा। वह अपलक दृष्टि से प्लेटफार्म की तरफ ताकने लगा। `किसी के प्रति प्रेमपूर्ण होना ज्यादा आनंदप्रद होता है। यह तो व्यक्त के अपने हाथ में है। और कौन आनंदित होना नहीं चाहता।' उसने सोचा। - `लो गुरु, तुम्हारे ग्राहक आ गये।' तीन यूरोपीय युवक काउंटर के पास चले आए। उनके हाव-भाव देखते हुए वह सोचने लगा- `इस समय वह क्या कर रही होगी? अभी तो वहां रात होगी। वह सोती होगी। पौ फटते ही उठने की अभ्यस्त होगी तो योगासन-प्राणायाम साध रही होगी। क्या यह संभव है कि वह भूल चुकी हो कि प्रकाश और मंदिरों के नगर में सत्रह मार्च, शनिवार को कोई उससे मिला था, जिसे उसने मित्रता का मौन वचन दिया था? और क्या वह जानती होगी कि जब उसके नगर में उजाला होता है तो यहां उसकी स्मृति से आलोकित हुआ एक स्पंदित मन शाम के धुंधलके में आविष्ट होने लगता है, इस प्रकाश नगर में भी!
rajesh prasad
published in VAGARTH, OCTOBER, 2004 issue.
Wednesday, May 7, 2008
Wednesday, March 19, 2008
छोटी-छोटी कविता
छोटी-छोटी कविता
चान्द है सुन्दर मगर कब पास है
गीत है लेकिन गले का दास है
है सुरा मधुमय मगर उपवास है
अस्तित्व तेरा भी यू ही अहसास है..
प्रेम क्या है, ज़िन्दगी का एक सम्मोहक सपन है
है सफल तो वासना है, असफल है तो रुदन है…
जी चाहता है दोस्त हम तुमसे न कुछ कहे
मगर वह सज़ा क्या जिसके लिए तैयार तुम रहो !
जानते है तुम समन्दर बन के न हमसे मिलोगे
तपते रेगिस्तान मे लेकिन सफ़र सुहाना है…
धूप रेगिस्तान-सी पा फूल उपवन मे जले
मूर्ख है वे जो सुकोमल भावनाओ मे पले
हो हृदय पाषाण के, तन भी लोहे के बने
ताकि तपकर ताप मे भी विविध सान्चो मे ढले…
Sunday, March 16, 2008
हिज़डा
कहानी
आज का दिन
वह बस से उतरा और दादर स्टेशन की ओर चल पडा। उसके आगे कूल्हे हिलाती युवतियां जा रही थीं। वह भी उनमें से एक होता तो क्या बात थी,उसने सोचा, तब उसके हाव-भाव ज़्यादा स्त्रैण होते, उसकी कमनीयता ज़्यादा मोहक होती । कभी-कभी जो उसे दुत्कार देते हैं, वे ही उसकी निकटता की कामना करते। अफ़सोस कि वह युवती नहीं बन सकता था। वह हिजड़ा था ।
पान की दूकान के सामने रुककर उसने थैला अपने पैरों के पास रखा और पान बनाने के लिए कहकर दूकान के शीशे में अपनी छवि निहारने लगा। दाहिनी आंख का काजल थोड़ा फ़ैल गया था, जिसे उसने आंचल से पोंछा, होठों को परस्पर चिपकाकर लिपस्टिक की परत को सम किया, फ़िर दाहिने जबड़े में पान दबाकर एक नई दृष्टि से खुद को देखा। अक्सर दिखाई पड़ने वाले हिजड़ों की अपेक्षा वह अधिक सुंदर लग रहा था। उसकी साड़ी साफ़-सुथरी थी। अर्द्धपारदर्शी ब्लाउज़ से रंग-बिरंगी कढ़ाई वाली ब्रा झलक रही थी। दुबले-पतले शरीर के अनुपात में उसके स्तनों के उभार आकर्षक थे, बिलकुल ज़वान औरतों के स्तनों की तरह। चेहरे पर भी नमकीन चमक थी। उसे पीछे से देखकर कोई भी पुरुष उसके स्त्री होने के भ्रम में पड़कर आकृष्ट हो सकता था, बस कमर में थोड़ी लचक पैदा करनी पडती...बहुत बढ़िया, उसने सोचा, और यह क्या ! अचानक उसकी दृष्टि अपनी छवि से भटककर शीशे में प्रतिबिंबित सड़क के दूसरे किनारे पर पड़ी तो वह चिहुंक गया । उस पार से तीन हिजडे़ अपना थैला-ढोलक संभाले उसी की तरफ़ चले आ रहे थे । तेज़ चलने की कोशिश में उन्होंने लगभग घुटनों तक साड़ियां उठा रखी थीं।वह घबरा गया, फ़िर अपना थैला उठाकर सड़क पर बहती भीड़ को चीरता हुआ लगभग दौड़ता चला गया । वह आतंकित था और उन तीनों से दूर चला जाना चाहता था। पीछे उसने उनका चिल्लाना सुना। घबराहट में वह उसी बस-स्टाप पर पहुंच गया था, जहां कुछ देर पहले ही बस से उतरा था । चलने के लिए तैयार खड़ी बस में वह चढ़ गया और पिछली खिड़की से बाहर झांककर देखा तो उन तीनों की एक झलक मिली ।
-‘भैया, देखो हिजड़ा !’ एक छोटी बच्ची सडक पर चिल्लाई ।
-‘वह हिजड़ा नहीं, हिजड़ा है । देखा नहीं, बिलकुल आंटी जैसी लग रही थी ।’ भाई ने किसी आंटी से उसकी साम्यता की कल्पना करते हुए समझाने के अन्दाज़ में कहा ।
-‘चुप्प !’ औरत ने चीखकर बच्चों को चुप कराया । उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया था।
बस तीस-पैंतीस मीटर तक आगे बढ़ गयी तो जैसे उसकी जान में जान आई ।
पिछले दो महीनों के दौरान हिजड़ों के उस समूह से यह उसका दूसरा टकराव था । पहला टकराव पिछले महीने कल्याण स्टेशन पर तब हुआ था, जब वह ट्रेन में झाडू़ लगाने वाले बच्चों के साथ सीढ़ियों पर बैठा था और ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। वे तीनों जाने कब और कहां से एकाएक प्रकट हो गए थे । वे उटपटांग सवाल पूछ रहे थे और उसके लिए बहू, खसम, नानी, मौसी जैसे शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। पुरुषों के अन्दाज़ में वे उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए छेड़-छाड़ कर रहे थे । खींच-तान में उसका थैला सीढ़ियों से लुढ़ककर प्लेटफ़ार्म पर जा गिरा था। उसकी साड़ी की तारीफ़ करते हुए जब एक हिजडे़ ने अन्दर तक हाथ डाल दिया था तो वह इतनी ऊंची आवाज़ में चीखा था कि तीनों हतप्रभ रह गए थे और बच्चे डरकर अपना-अपना झाडू लेकर दूर हट गए थे । जब तक वहां कुछ लोग जमा होते, वह उन तीनों के चंगुल से छूटकर तेज़ी से अपने थैले की ओर लपका था और पटरी फ़लांगते हुए स्टेशन से बाहर निकल गया था । पीछे तीनों हाथ नचा-नचाकर तालियां बजा रहे थे और हंस रहे थे.
आज भी वह बाल-बाल बचा था ।
वह लोकल ट्रेन से कुर्ला पहुंचा, जहां से यू.पी.-बिहार की दिशा में जाने वाली ट्रेन पकड़ी जा सकती थी। उसका कोई निश्चित गंतव्य नहीं था । शाम के चार-साढे़-चार बजे तक ट्रेन जहां तक का सफ़र तय करती, बस वहीं तक जाना था और रात के दस-साढे़-दस बजे तक अपनी झोपड़-पट्टी में वापस लौट आना था। पिछले दिनों के अनुभवों ने उसे बता दिया था कि मुम्बई की शिराओं में बहने वाला खून यू.पी.-बिहार का है और हिजडों-भिखारियों को देने वालों में ज्यादा संख्या भी वहीं के निवासियों की होती है। फ़िर उस रूट पर चलने वाली ट्रेनों में वहां के लोग ज़्यादा नहीं होंगे तो क्या गुजराती-मराठी होंगे !
दरभंगा एक्सप्रेस की जनरल बोगी के शौचालय के पास कुछ देर रुककर वह मुसाफ़िरों को परखता रहा, फ़िर जब ट्रेन आगे सरकी तो थैले से छोटी-सी ढोलक निकालकर गले में लटका ली और कारीडोर में आकर बजा-बजा नाचने-गाने लगा। खिड़की के पास गोद में फ़िल्मी पत्रिका रखे बैठे युवक की आंखों में अपने प्रति दिलचस्पी के भाव देखकर हिजडे़ ने निचला होंठ चुभलाकर एक आंख दबाई। युवक हंस पड़ा। हिजडे़ ने इठलाते हुए कमर लचकाई और ताली बजाकर अपनी हथेली उसके सामने फ़ैला दी-‘अब तड़पा मत मेरे राजा, दे दे ।’ युवक ने अप्रसन्नता से उसे देखा, फ़िर तिरस्कार करता हुआ खिड़की से बाहर झांकने लगा । पीछे सरकते प्लेटफ़ार्म पर दो सुंदर और ज़वान आधुनिकाएं ट्रेन के साथ-साथ तेज़ी से चलने की कोशिश कर रही थीं और आगे जा चुकी किसी बोगी को इंगित करके विदाई की मुद्रा में हाथ हिला रही थीं । उनकी आंखों में विछोह के आंसू और होठों पर विदाई देती नकली मुस्कान थी। युवक उन्हें ही देख रहा था । पलभर के लिए हिजडे़ का ध्यान भी उनकी ओर चला गया, फ़िर युवक का कंधा छूकर दीनता से बोला-‘दे न, सेठ ।’
-‘हट, नईं तो एक देवेगा कान के नीचे।’युवक ने भड़ककर दांत पीसते हुए कहा, फ़िर बाहर झांकने लगा।
-‘नाराज़ क्यूं हो रहेला, सेठ । कमा के मुलुक जाता है। कुछ दान-पुन्न तो कर।’ हिजडे़ ने सकपकाहट और निराशा मिश्रित स्वर में कहा और आगे बढ़ गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था। हिजड़ा कहीं औरत की बराबरी कर सकता है !
ऊपर की सीट पर पीठ के बल लेटा अधेड़ हथेली पर ठुड्डी टिकाए हिजडे़ को देख रहा था । जब हिज़डे़ ने उसकी ओर देखा तो उसने आंखें बंद कर लीं। उसने ताली बजाकर उसे छुआ, जैसे डरते-डरते जगा रहा हो ।
-‘क्या है, बे?’ अधेड़ ने डपट दिया।
-‘अब्बी सोएंगा तो रात में क्या करेंगा, सेठ !’ वह दांत निपोरकर बोला। अधेड़ ने करवट बदलकर आंखें बन्द कर लीं। निचली सीट पर बैठे बारह-तेरह वर्षीय लड़के के चेहरे पर उत्सुकताभरी मुस्कान थी। हिज़डे़ के मन में अचानक ही स्नेह जाग उठा। लड़के के गाल पर धीरे से चुटकी काटकर बोला-‘खूब पढ़ने-लिखने का मुन्ने और बड़ा आदमी बनने का।’ लडके का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसने असहाय दृष्टि से पिता की ओर देखा। क्षुब्ध पिता ने हिजडे़ को धक्का देकर कहा-‘माफ़ कर, जा यहां से’ और दो रुपए का सिक्का थमा दिया।
यही उसकी दिनचर्या थी।
आधे घंटे बाद वह स्लीपर क्लास बोगी में था और शाम को पांच बजे मनमाड स्टेशन की सीढ़ियों पर दो कुत्तों और एक पगली औरत के पास बैठा अपनी कमाई गिन रहा था। उसने कम-से-कम तीन सौ लोगों के सामने हाथ पसारे थे, गीत गाए थे, तालियां बजाकर ठुमके लगाए थे। ज़्यादातर लोगों ने उसकी तरफ़ ध्यान तक नहीं दिया था। तीस-चालीस लोगों ने एक रुपए से दस रुपए तक दिए थे। चार-पांच लोगों ने अश्लील शब्द कहते हुए इशारे किए थे। दो-तीन लोगों ने नितंबों और स्तनों पर हाथ फेरा था। एक आदमी ने ‘बीस रुपए ले लेना’ कहकर दस मिनट के लिए टायलेट में चलने के लिए कहा था। अपनी बीवी के साथ सफ़र करते एक फ़ौज़ी ने उसे धक्के मारकर बोगी के दरवाज़े तक पहुंचा दिया था। दो पुलिसवालों ने हमेशा की तरह उसकी कमाई में से पचास रुपए साधिकार चूस लिए थे।
रात को दस बजे वह कामायनी एक्सप्रेस से वापस कुर्ला पहुंचा। उस समय तक उसके पास कुल मिलाकर दो सौ पन्द्रह रुपए बचे थे। वहां से लोकल ट्रेन पकड़कर दादर, फ़िर बस से अपनी झोपड़पट्टी में पहुंचा।
सतर्क दृष्टि से चारों तरफ़ देखता हुआ वह अपने झोपडे़ के पीछे से गुज़रती रेलवे-लाइन के पास, नाले के किनारे उगी झाड़ियों में चला गया। अन्धेरे में उसे कोई देखता तो यही समझता कि झोपड़पट्टी की कोई औरत शंका-निवृत्ति के लिए गई होगी।
धूल, धुएं और दुर्गंध से प्रदूषित मुम्बई के आसमान में, इमारतों के ऊपर मटमैला चांद था, बहते नाले की दुर्गंधभरी आवाज़ थी और झोपड़पट्टी से जाने-पहचाने बेवड़ों के चीखने-चिल्लाने, औरतों के लड़ने-झगड़ने और बच्चों के रोने के स्वर यहां झाड़ी तक आ रहे थे। वह साड़ी खोलने लगा।
उसने अपने झोपडे़ की तरफ़ देखा। पिछली दीवार की दरारों से रोशनी की लकीरें निकल रही थीं।–‘सुबह बल्ब बुझाना भूल गया था, शायद।’ उसने सोचा।
गुज़रे हुए पागल दिन
यूं तो जो कुछ वह कर रहा था, उसमें कदम-कदम पर समस्याएं थीं, पर वास्तविक समस्या उसके अकेले होने की थी। उसने देखा था कि हिजड़ों के छोटे-से-छोटे समूह में भी कम-से-कम दो हिजडे़ तो ज़रूर होते थे। दूसरी समस्या स्वयं हिजडे़ थे, जिन्हें वह दूर से भी देख लेता तो कांप जाता और उसे लगता कि वह उनके घर में सेंध लगा रहा था और पकडे़ जाने पर सिर्फ़ बुरा ही हो सकता था। दो महीने पहले तक उसके सामने स्पष्ट नहीं था कि असली हिजड़ों से कभी आमना-सामना हो जाने पर उसके प्रति उनका व्यवहार कैसा होगा औरे खुद को वह उनके सामने कैसे प्रस्तुत करेगा। उनकी निर्लज्जता के नमूने उसने देखे-सुने थे। वे अश्लीलतम गालियां दे सकते थे, शायद मार-पीट भी कर सकते थे औरे सबसे भीषण बात तो यह होती कि उसके हिजड़त्व पर संदेह होने पर वे बीच सड़क पर या ट्रेन में या प्लेटफ़ार्म पर, कहीं भी उसके कपडे़ खींचकर नंगा करने में संकोच न करते। बाद की घटनाओं ने उसकी आशंका को सही सिद्ध किया था। निश्चित रूप से वे तीनों उसकी असलियत जान चुके थे। ऐसी स्थिति में वह अगर पुलिस के फेरे में पड़ जाता तो कानून की किसी-न-किसी धारा के तहत जेल भी पहुंच सकता था। एक समय मेहनतकश रहे आदमी के लिए अपमान की इससे बड़ी और कोई बात सम्भव न थी। उसे गहराई से महसूस होने लगा कि अपनी किस्मत में यह अपमान वह स्वयं लिख चुका था। आर्थिक तंगी ने पहले तो उसके व्यक्तित्व को हिजड़ा बनाया, फ़िर उसने स्वयं औरतों के कपडे़ पहनकर छद्म हिजड़त्व स्वीकार कर लिया था।
हिजड़ों की कमी थी क्या उसके आस-पास ! जब भी वह अपने आस-पास देखता, हर आदमी में उसे हिजड़ा नज़र आता। औरतें भी उसे हिजड़ा लगतीं...अपनी बीवी भी और दोनों बच्चे भी। हिजड़ा माने मज़बूर, चाहे आदमी हो या औरत या फ़िर बच्चे। उसे लग रहा था कि हिजड़ा एक व्यापक तत्त्व है। कितनी अज़ीब बात थी कि वह अब तक अपनी और अपने आस-पास के लोगों की असलियत से अनजान था।
झोपडे़ में चटाई पर लेटा-लेटा वह बीवी को याद कर रहा था, बच्चों को याद कर रहा था, पूर्वी उत्तर-प्रदेश के अपने उस गांव को याद कर रहा था, जिसे उसने पिछले आठ वर्षों से नहीं देखा था। बीवी-बच्चों को उसने अपने सास-ससुर के पास पहुंचा दिया था, जो नासिक मे कांदा-बटाटा और भाजी की दुकान चलाते थे, जिससे कि वह नई नौकरी का इंतज़ाम कर सके...नौकरी! पिछले आठ वर्षों से लगभग तीन महीने पहले तक वह आटे की जिस चक्की पर काम करता आया था, उसकी आमदनी दिनों-दिन कम होती जा रही थी। बाज़ार में बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियों ने एक किलो और पांच किलो के रंग-बिरंगे पैकटों में आटा बेचना शुरु कर दिया था, जिससे बहुत-से बंधे-बंधाए ग्राहक गेहूं खरीदने और पिसवाने की झंझट से छुटकारा पा गए थे। बाज़ार में आ रहे बदलाव की उसपर भारी मार पडी थी। चक्की की विधवा बूढ़ी मालकिन ने पहले तो उसकी पगार घटा दी थी, फ़िर कोढ़ में खाज़ जैसी स्थिति तब पैदा हो गई जब बु्ढ़िया का भतीजा बुरहानपुर से अपनी बुआ की देख-भाल करने पहुंच गया था। जब भतीजे ने चक्की की बागडोर संभाल ली और बतौर सहायक ग्राहकों के घर से गेहूं लाकर पीसने और पहुंचाने जैसे काम करने लगा तो उसे आसन्न संकट की पदचापें सुनाई पड़ी थीं और उसका मन मुरझाने लगा था। भतीजा जब चक्की के काम में पक्का हो गया तो आठ साल पुराने नौकर को चालू महीने के पन्द्रह दिनों की पगार दयानतदारी से देकर उसकी छुट्टी कर दी गई थी। वह बुढ़िया के सामने गिड़गिड़ाया था, पगार सात सौ रुपए से घटाकर पहले तो छह सौ रुपए, फ़िर पांच सौ रुपए कर देने की भी बात कही थी, पर जब वह नहीं मानी तो पन्द्रह-बीस दिन रुक जाने के लिए भी कहा था, पर बुढ़िया अपने निर्णय पर अडिग रही थी। अब तक वह खडे़ पैर बेरोज़गार होने की कल्पना से बचता आया था। कभी सोचा भी न था कि ‘बेटा-बेटा’ कहकर स्नेह दिखाने वाली बु्ढ़िया एकाएक ही इतनी बेरहम हो जाएगी। साढे़ तीन सौ रुपए लेकर जब वह सड़क पर आया था तो उसके पैरों ने जैसे आगे बढ़ने से इनकार कर दिया था। वह खुद से पूछ रहा था कि अब वह क्या करेगा। आठ साल पहले मुम्बई में कदम रखते ही उसे चक्की चलाने का यही पहला काम मिला था। उस एकरस काम में वह इतना रम गया था कि और कुछ सीख भी नहीं पाया था।
हमेशा की तरह उस दिन भी वह रात को नौ बजे अपने झोपडे़ में पहुंचा था। बीवी झोपडे़ के दरवाज़े के सामने बैठी थी और आलू छीलते हुए पड़ोसन से बातें कर रही थी। अंदर से बच्चों के पढ़ने की आवाज़ें आ रही थीं। बिना कुछ कहे वह अंदर जाकर चटाई पर लेट गया था। वह न तो बीवी को नौकरी छूटने की बात बता पाया था, न रोज़ की तरह बच्चों के प्रति स्वाभाविक स्नेह ही दिखा पाया था। कितनी समझदार थी उसकी पांच साल की बेटी! उसका सिर सहलाते हुए बोली थी-‘सिर में दर्द है क्या, पापा? मम्मी, पापा के सिर में तेल लगा दो।’
आने वाले कुछ दिनों तक वह हमेशा की तरह सुबह सात बजे बीवी के हाथ में बीस रुपए रखकर, पालीथिन के बोरे को काटकर बनाए गए थैले में दो डिब्बों वाला अल्युमोनियम का टिफ़िन-कैरियर लेकर निकलता और पार्क में बैठकर या सड़कों पर भटककर पूरा दिन बिता देता! बेरोज़गारी की यातना से आक्रांत उसका दिमाग जैसे सुन्न हो गया था...अचानक एक विचार से वह चिहुंक उठा--वह फेरीवाला बन जाता तो भी अच्छा होता! मन में इस विचार के आते ही उसे हर जगह मूंगफ़ली, भुने चने, आईस-क्रीम, भेलपूरी, खारी, फ़ल, चाय, रस्क वगैरह बेचते बहुत से फ़ेरीवाले दिखाई पड़ने लगे थे। वह हैरान था कि इतने लोग अब तक कहां छिपे थे। कभी वह उनमें से किसी के पास जा खड़ा होता और ग्राहकों से लेन-देन करते देखता। किसी फ़ेरीवाले से पूछता-‘ये कितने रुपए का सामान है...शाम तक कितना बिक जाएगा...कितना कमा लेते हो...ये टोकरी कहां से खरीदी?’ जब कोई फ़ेरीवाला नाराज़ होकर पूछता-‘लेने का है, क्या?’ तो वह दीन-हीन-सा वहां से हट जाता और दूसरे के पास जा खड़ा होता। उन्हें देखकर वह कल्पना नहीं कर पाता कि एक दिन वह भी उन्हीं की तरह सिर पर सामान रखकर आवाज़ लगाता सड़क-दर-सड़क, मोहल्ला-दर-मोहल्ला, चाल-दर-चाल, पार्क-दर-पार्क, पटरी-दर-पटरी भटकेगा। अनजाने में एक गहरी निराशा रेत की तरह झर-झरकर उसके मन की तलहटी पर जमा होती जा रही थी, जिसके नीचे विचार-शक्ति और भावनाएं धीरे-धीरे दबती जा रही थीं।
एक दिन जब उसने पाया कि उसकी ज़ेब में सिर्फ़ एक सौ नब्बे रुपए बचे रह गए थे तो एकाएक ही उसकी आंखों के सामने विकराल गरीबी झेलते परिवार का चित्र यथार्थ अनुभव की तरह चमक गया था। वह घबराया-सा दूकान-दर-दूकान भटकता हुआ नौकरी खोज़ने लगा था, पर सभी जगहों से उसे इनकार ही सुनने को मिला था। धीरे-धीरे ‘इदर में किदर रखा है काम’ उसके कानों में निरन्तर गूंजने लगा था। फ़िर भी जब निराशा का सामना करने के लिए मानसिक रूप तैयार होकर किसी दूकान की ओर कदम बढ़ाता तो जैसे उसके कानों में पहले ही कोई फुसफुसा देता-‘इदर में किदर रखा है काम’। दो दिनों की भटकन में वह ये शब्द इतनी बार सुन चुका था कि उसे भ्रम होने लगा कि वह मुम्बई की सभी दूकानों में काम खोज़ चुका था और अब आशा की कोई किरण न थी... थकान और पसीने ने भी उसे शारीरिक रूप से तोड़ना शुरु कर दिया था। उसके शरीर से आने वाली आटे की गन्ध न जाने कब खो गई थी और अब वह पसीने की दुर्गंन्ध महसूस करने लगा था। लेकिन कुछ तो करना ही है, यह सोचकर एक दिन दस-पन्द्रह दूकानों पर दरियाफ़्त करने के बाद एक दूकान से डेढ़ किलो मूंगफ़ली और कुप्पी बनाने के लिए पुराने अखबार खरीदकर दूर-दराज़ की चालों में आवाज़ लगाता हुआ घूमने लगा था। शाम होते-होते जब सारी मूंगफ़ली बिक गई थी और लाभ के रूप में उसकी ज़ेब में नौ रुपए आ गए थे तो उसे लगा था कि उसने चिन्ता का एक बहुत बड़ा सागर पार कर लिया था। अगले दिन उसने दो किलो मूंगफ़ली खरीदी थी। उस दिन उसने बीस रुपए कमाए थे। एक हफ़्ते बाद ही उसे लगने लगा था कि जी-तोड़ मेहनत करने के बाद भी वह पच्चीस रुपयों से ज्यादा नही कमा सकता था। फ़िर एक दिन जब ज़ेब में लाभ के बीस रुपए ओर थैले में लगभग दो सौ ग्राम मूंगफ़ली बची रह गई और शाम ढलने लगी तो वह झोपडे़ में लौट आया था। उसे इतनी जल्दी आया देखकर बीवी खुश हुई थी। जब उसने बीवी के हाथ में मूंगफ़ली की कुप्पी थमाई तो वह हैरान रह गई थी। आज से पहले मूंगफ़ली या शौकिया खाने लायक कोई चीज़ लेकर वह घर नहीं आया था।
-‘कितने की मिली?’ उसने पूछा था, होठों पर मुसकान और आंखों में चिन्ता थी।
-‘बहुत सस्ती, सिर्फ़ चार रुपए की है। उसके पास इतनी ही बची थी, इसलिए सस्ती दे दी।’ उसने सफ़ाई दी थी और सूखी-सी हंसी हंस पड़ा था।
वह चटाई पर अधलेटा-सा बीवी-बच्चों को रुचिपूर्वक मूंगफ़ली फ़ोड़ते-खाते देखता रहा था। उस क्षण कितना सुखी था, वह।
रात को बच्चों को सुलाने के बाद दोनों आलिंगनबद्ध हुए थे तो कांपती-फुसफुसाती आवाज़ में उसने पन्द्रह दिन पहले नौकरी छूटने और अब तक मूंगफ़ली बेचने की बात बताई थी। क्षणभर के लिए बीवी की बाहें शिथिल हो गई थीं, फ़िर उसने उसे जकड़ लिया था, जैसे उसके कहीं दूर भाग जाने के भय से आक्रांत हो उठी हो। वह बार-बार उसे भींच लेती और चेहरे पर, छाती पर, गरदन में चुंबनों की बौछार-सी कर देती और कभी उसके सीने में चेहरा गड़ाकर आ पडे़ क्षण से मुक्ति पाने की कोशिश करने लगती। उसे जब अपने होठों के बीच बीवी के आंसुओं का खारापन महसूस हुआ था तो वह भी आवेग न रोक सका था और उसकी आंखों से भी आंसू ढुलक पडे़ थे। वह भी उसकी मन:स्थिति तुरन्त समझ गई थी। उसने उसके चेहरे पर हाथ फेरा था, फ़िर ‘छि:’ कहकर भींच लिया था। मन का आवेग कब देह के आवेग में बदल गया था, दोनों ही नहीं जान पाए थे। वह उसके ऊपर चली आई थी, गरदन और गालों पर दांत चुभा रही थी, होंठ और जीभ से उसका चेहरा गीला कर रही थी। साझा दुख उन्हें कहीं दूर भाग जाने के लिए प्रेरित कर रहा था और दोनों एक दूसरे की तरफ़ भाग रहे थे।
दाम्पत्य जीवन के शुरुआती दिनों के बाद इतना सघन चरम सुख उन्होंने कभी नहीं पाया था।
अगली रात खाने के बाद वह झोपड़पट्टी में दिखाई जा रही सार्वजनिक वीडियो फ़िल्म का शो देखने गया था। फ़िल्म पुरानी थी। एक हिजड़ा था उसमें, जिसने खूब हंगामा मचाया था और हीरो ने अपनी प्रेमिका को बचाने के लिए ज़बर्दस्त संघर्ष किया था। फ़िल्मों के बारे में उसे ज़्यादा कुछ नहीं पता था। पास बैठे आदमी ने जब उसे बताया कि वह असल हिजड़ा नहीं, बल्कि सदाशिव नाम का ‘विलेन’ था तो वह हैरान हुआ था। रात को जब बीवी-बच्चे सो रहे थे तो उसके दिमाग पर ‘महारानी’ नाम का वह हिजड़ा छाया हुआ था। वह लेटा-लेटा याद करने की कोशिश कर रहा था कि असल ज़िन्दगी में उसने हिजड़ों को कब-कब, कहां-कहां और क्या-क्या करते देखा था। उसे याद आए असली सोने की ज़ंजीरें पहने हिजडे़, उनके ब्लाउज़ से झांकते सौ और पचास रुपयों के नोट। दिनभर में सौ-दो सौ रुपए कमा लेना तो उनके लिए जैसे मामूली बात थी। ताली बजाकर कमर मटकाने, नाचने और आधे-अधूरे गीत गाने के अलावा जैसे उनका और कोई काम ही न था और सिर्फ़ इतना-सा करने पर सौ-दो सौ रुपए ! उसकी अपनी कमाई से सात-आठ गुना ज़्यादा... ! आखिर मर्द से वे किस तरह अलग होतें हैं! फ़िर जो ‘असल’ अंतर होता है, वह दीखता भी कहां है! इतना तो वह भी कर सकता है... यही वे क्षण थे जब उसने दुरुस्त होशोहवास में हिजडा बनने का निर्णय लिया था। उसे खुशी हुई थी कि उसके बाल इतने लम्बे हो चुके थे कि वह उन्हें रबर-बैंड से बांधकर छोटी-सी चोटी बना सकता था। चेहरे पर भी बहुत कम बाल थे...पर सिर्फ़ इतना काफ़ी न होता। वह रूप कहां बदलता? छोटे-से झोपडे़ में यह सम्भव न था...हां, अगर बीवी-बच्चों को सास-ससुर के पास नासिक भेज दे तो सम्भव था...नहीं, तो भी कठिनाई थी। सुबह-शाम निकलते-लौटते वह पड़ोसियों की नज़रों से बच नहीं सकता था। यह उसका इतना निजी मामला होता कि किसी को हर्गिज़ भी शामिल नहीं किया जा सकता था। हां, झोपडे़ के पीछे नाले के पास वह अपना रूप बदल सकता था, जहां कोई नहीं जाता था। वहां अक्सर मालगाड़ी के डिब्बे खडे़ रहते थे।
तीन दिनों बाद उसने भोली-भाली बीवी को समझा-बुझाकर, माली तंगी का वास्ता देकर बच्चों सहित नासिक पहुंचा दिया था, जहां सास-ससुर दो कमरों के घर में रहते थे। उसने कहा था-‘कोई अच्छा-सा काम मिलते ही हफ़्ता-दस दिन में तुम लोगों को लेने आ जाऊंगा।’
अगले दिन जब वह वापस लौटा था तो खाली झोपड़ा जैसे उसे अंदर आने से रोक रहा था। उसकी ज़ेब में सिर्फ़ पचास रुपए बचे थे। चटाई पर लेटा हुआ वह बहुत देर तक झोपडे़ की रिक्तता में सघन उदासी महसूस करता रहा था। उसे लग रहा था कि उसने हिजड़ा बनने के निर्णय लेकर बहुत बड़ी बेवकूफ़ी की थी। बीवी-बच्चों के बिना आने वाला हर क्षण असहनीय और भारी होता लग रहा था। इससे पहले शायद वह इस झोपडे़ में कभी क्षणभर के लिए भी अकेला नहीं रहा था। क्या ज़रूरत थी ऐसा करने की...मूंगफ़ली बेचकर वह उतना तो कमा ही लेता, जितना उसे चक्की की मालकिन दे रही थी...हिजड़ा बनने की योजना कितनी बेवकूफ़ी की थी, यह बात उसे पहले क्यों न समझ में आई। लेकिन अब क्या हो सकता था! अब अगर बीवी-बच्चों को वापस लाना भी चाहे तो रुपए कहां थे!
उसका दिल बैठने लगा।
फ़िर दिल को मज़बूत करके कोने में रखा टिन का बक्सा खोलकर जब उसने बीवी के वे कपडे़ निकाले, जिन्हें वह कभी-कभी ही पहनती थी तो उसका दिल धड़क उठा था। पिछले एक महीने में उगी नाम-मात्र की दाढ़ी-मूछ साफ़ करके उसने साबुन से रगड़-रगड़कर चेहरा धोया था, फ़िर बालों को पीछे करके रबर-बैंड से बांध लिया था। ब्रा, ब्लाउज़, पेटीकोट और साड़ी पहनकर शीशे में देखा तो एकाएक खुद को पहचान नहीं पाया था। पुरानी लुंगी के टुकड़ों के गोले बनाकर ब्रा में सरका दिए थे, माथे पर लिपस्टिक से गोल बिन्दी बनाई थी और होंठ रंग लिए थे। अब वह हिजड़ों से कहीं ज़्यादा औरत लग रहा था। उसके शरीर में मीठी सनसनी दौड गई थी। बीवी की दैहिक निकटता की तीव्र कामना से वह भर उठा था और शरीर में गर्म रक्त का प्रवाह अनुभव कर रहा था। अफ़सोस कि बीवी नासिक में थी। उस दौरान उसे झोपड़पट्टी की कई औरतें याद आई थीं, जो कभी-कभार उससे बातें कर लेती थीं। उसे पता था कि तृष्णा के इस क्षण में उसे कोई औरत न मिलने वाली थी।
उसने फ़िर शीशे में देखा---एक हिजड़ा उसकी ओर देख रहा था।
ससुराल में बीती रात और रात की कहानी
एक हफ़्ता बीतने के बाद से हर दूसरी सुबह झोपड़पट्टी के पी.सी.ओ. पर बीवी का फ़ोन आने लगा था—‘जल्दी आकर ले जाओ’। कभी बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की बात करती तो कभी कहती कि आखिर कब तक वह मां-बाप के पास रहेगी। जब वह अपनी व्यस्तता और परेशानी का हवाला देता तो कहती कि बच्चों को लेकर वह खुद ही चली आएगी। जब वह कडे़ स्वर में मना करता तो सुबकने लगती। फ़िर मुलायम स्वर में समझाता—‘तू समझती नहीं है! एक फ़ैक्टरी में वाचमैनी का काम मिलने वाला है। बस, एक हफ़्ते और रुक जा।’ इस तरह आश्वासन देते-देते दो हफ़्ते बीत गए थे। इस बीच उसके पास डेढ़ हज़ार रुपए जमा हो गए थे और मन में माली हालत सुधरने की उमंग भर गई थी। उसने तय किया था कि वह महीने में दो-तीन बार नासिक जाया करेगा और हर बार बीवी को पांच-छह सौ रुपए दे दिया करेगा। वहीं के किसी स्कूल में बच्चों का नाम भी लिखवा देगा। यही ठीक रहेगा! पहले तो सात सौ रुपए में महीने भर का खर्च चल जाता था। अब तो वह हज़ार-बारह सौ रुपए दिया करेगा, फ़िर वहां सास-ससुर की रसोई में खाना बनेगा तो सस्ता ही पडे़गा।
फ़िर एक शाम वह नासिक जा पहुंचा था, बीवी बच्चों के लिए कपडे़ और मिठाई का डिब्बा लेकर।
शाम का समय बच्चों के साथ हंसते-बतियाते बीत गया था। वह सिर्फ़ दिखावे के लिए बात-बात पर हंस रहा था, लेकिन भीतर कोई चीज़ बिलकुल स्थिर थी और रात की प्रतीक्षा कर रही थी। बरामदे में एक बार बेटी ने अपने नाना-नानी के बारे में कोई ऐसी मज़ाकिया बात कही थी कि वह जैसे नियंत्रण खोकर, हाथ नचाकर, ताली बजाकर हंस पड़ा था। बेटी ने उसे चौंककर देखा था। ताली की ऊंची आवाज़ सुनकर बीवी भी बाहर चली आई थी। बेटी ने कहा था-‘मम्मी, पापा ने ताली बजाई...पहले तो आप ताली नहीं बजाते थे, पापा!’
-‘ठीक है, भाई, अब नहीं बजाएंगे।’ कहकर वह खिसियाया-सा कमरे में घुस गया था। उसे डर लगने लगा था कि उसका शरीर बेकाबू होकर कहीं नाचने न लग जाए। पिछले दिनों का अभिनय अब सिर्फ़ अभिनय ही नहीं रह गया था, बल्कि उसके व्यक्तित्व में कहीं गहराई से समा गया था...हाथ, कमर और आंखों की मांसपेशियो पर जैसे अब उसका कोई नियंत्रण नहीं रह गया था, सब जैसे स्वतंत्र होकर काम करने लगी थीं। बात-बात पर ताली का बज जाना, कमर का अचानक हिल जाना, दांतों का निपोरा जाना, आंखों का मटकना….सब जैसे अपने आप होने लगा था। और तो और, उसकी चाल भी बदल गई थी। ‘ये मुझे क्या हो गया, भगवान,’ उसने मन ही मन कहा था और सावधान हो गया था।
रात को बीवी ने उसे अपने पास खींचते हुए पूछा था-‘इतने दिनों बाद सुध ली है!’
-‘दस दिन से एक फ़ैक्टरी में वाचमैनी शुरु की है, शाम के सात बजे से सुबह छह बजे तक। डेढ़ हज़ार दे रहे हैं...’ उसने बात बदलने की कोशिश की थी।
-‘यह तो बहुत है!’ वह हैरान हुई थी।
-‘लेकिन ज़िन्दगानी गड़बड़ हो गई है।’
-‘चलो, जाने दो। परिवार से दूर रहना अच्छा लगता है, क्या?’
-‘कोई दूर रहकर खुश रह सकता है!’ अफ़सोसभरे स्वर में कहते हुए उसने उसके गाल से मुंह चिपका दिया था-‘काट लूं?’
-‘ऊं...हां, लेकिन धीरे से। निशान न पडे़।’ कहकर वह उससे चिपक गई थी। उसके शरीर से सुगन्ध आ रही थी। शायद कोई क्रीम या पाउडर लगा कर आई थी। बालों में चमेली के फूलों की वेणी भी थी। अचानक वह उठा तो उसने पूछा था- ‘कहां...?’ दीवार पर टंगी पैंट की ज़ेब में से उसने अलग से गिनकर रखे पांच सौ रुपए निकालकर बीवी को दिए थे- ‘ये पिछले महीने की दस दिनों की पगार है। रख ले। मेरे पास और हैं।’
-‘हम लोग नहीं जाएंगे क्या?’
-‘कैसे जाएगी?’ उसकी कमर अनियंत्रित-सी होकर हिली थी, जैसे इनकार कर रही हो-‘मुझे रातभर फ़ैक्टरी में रहना पड़ता है।’
-‘ये ठीक नहीं है। आखिर कब तक....?’
-‘इतना समझ ले कि तुम लोग गए तो मै नौकरी नहीं कर पाऊंगा….यहां महीने में दो-तीन बार आया करूंगा...दोनों को यहीं किसी स्कूल में भरती करा दे।’ उसने निर्णायक स्वर में कहा था। वह चुप हो गई थी। वह उसके पास जा लेटा था। कुछ देर बाद लम्बी सांस छोडकर उसके वह उसके बालों में उंगली फ़िराने लगी थी-‘बाल क्यों नहीं कटवा लिए?...तुम बहुत बदल गए हो, जी।’
-‘नई नौकरी है, न।’
-‘वो बात नहीं...’ वह कुछ कहने वाली थी, लेकिन चार होठों के बीच उसकी आवाज़ घुटकर रह गई थी।
दूसरे कमरे में बच्चों की नानी ने कहानी खत्म करते हुए कहा था-‘किसी राजकुमारी की वैसी शादी नहीं हुई थी। देश-दुनिया से लोग आए थे और रातभर खाते-पीते रहे थे।’
-‘अच्छी थी।और सुनाओ।’
-‘अब सो जाओ।’
-‘नहीं नानी, बस एक..।’ लडके ने ज़ोर देकर कहा था।
-‘अच्छा, एक और..., फ़िर सोना पडे़गा।’
-‘अब कब आओगे?’ बीवी ने पूछा था।
-‘अभी तो हूं, न। इधर खिसक।’
-‘सोना नहीं है! चार बज रहे हैं।’
-‘वो तो रोज़ बजते हैं।’
-‘बताया नहीं तुमने!’वह पास खिसक आई थी।
-‘अगले हफ़्ते।’ उसने कहा था।
लेकिन वह दो हफ़्ते बाद आया था। इस बार भी उसने एक हफ़्ते बाद आने का वायदा किया था....और तीसरा हफ़्ता चल रहा था।
आज की रात
-‘हां, सुबह बल्ब बुझाना भूल गया था।’ उसने खुद से कहा और थैला संभाले झोपडे़ के सामने चला गया। दरवाज़े के सामने सोए कुत्ते को उसने दुरदुराकर भगाया। अचानक दरवाज़ा खुल गया। उसकी नज़र पहले बीवी के चेहरे पर पड़ी, फ़िर अन्दर सोए बच्चों पर।
-‘तू कब...क्यों चली आई?’ उसने अटकते हुए पूछा-’मैने कहा था न कि वहीं रह। मैं तो कल ही आने वाला था।’
वह चुप रही। बेशक वह नाराज़ थी, उससे।
थैला उसने दरवाज़े के पीछे रख दिया। बीवी ने थैले की तरफ़ ध्यान नहीं दिया, तो वह कुछ निश्चिंत-सा हो गया।
-‘हाथ-मुंह धो लो, खाना लगाती हूं।’ वह बोली।
वह ढाबे से खाकर आया था, इसलिए बहुत बेमन से खा पाया।
जब वे बत्ती बुझाकर लेटे तो बीवी ने रुलाई रोकते हुए कहा-‘ये तुम क्या बन गए हो, जी! वे तीनों तुम्हारे पीछे क्यों पडे थे?’
-‘क्या!’ वह घबरा गया। अंधेरे में उसकी आंखें फैल गईं और चेहरा विकृत हो गया। माथेपर पसीना चुहचुहा आया।
वह फफककर रो पड़ी।
उसकी सांसे तेज़ हो गईं। एक गहरे कुएं में वह गिर रहा था। अंधेरा और घना हो गया था। उसके शरीर से कपडे़ अलग हो रहे थे। हे भगवान, यह एक बुरा सपना हो… सच न हो… बस एक बुरा सपना ही हो...’ वह बुदबुदा रहा था।
---इति---
राजेश प्रसाद
केन्द्रीय विद्यालय
ढेंकानाल
पत्रालय-मंगलपुर (वाया-भापुर)
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रचना-काल:अक्तूबर, 2005.
आज का दिन
वह बस से उतरा और दादर स्टेशन की ओर चल पडा। उसके आगे कूल्हे हिलाती युवतियां जा रही थीं। वह भी उनमें से एक होता तो क्या बात थी,उसने सोचा, तब उसके हाव-भाव ज़्यादा स्त्रैण होते, उसकी कमनीयता ज़्यादा मोहक होती । कभी-कभी जो उसे दुत्कार देते हैं, वे ही उसकी निकटता की कामना करते। अफ़सोस कि वह युवती नहीं बन सकता था। वह हिजड़ा था ।
पान की दूकान के सामने रुककर उसने थैला अपने पैरों के पास रखा और पान बनाने के लिए कहकर दूकान के शीशे में अपनी छवि निहारने लगा। दाहिनी आंख का काजल थोड़ा फ़ैल गया था, जिसे उसने आंचल से पोंछा, होठों को परस्पर चिपकाकर लिपस्टिक की परत को सम किया, फ़िर दाहिने जबड़े में पान दबाकर एक नई दृष्टि से खुद को देखा। अक्सर दिखाई पड़ने वाले हिजड़ों की अपेक्षा वह अधिक सुंदर लग रहा था। उसकी साड़ी साफ़-सुथरी थी। अर्द्धपारदर्शी ब्लाउज़ से रंग-बिरंगी कढ़ाई वाली ब्रा झलक रही थी। दुबले-पतले शरीर के अनुपात में उसके स्तनों के उभार आकर्षक थे, बिलकुल ज़वान औरतों के स्तनों की तरह। चेहरे पर भी नमकीन चमक थी। उसे पीछे से देखकर कोई भी पुरुष उसके स्त्री होने के भ्रम में पड़कर आकृष्ट हो सकता था, बस कमर में थोड़ी लचक पैदा करनी पडती...बहुत बढ़िया, उसने सोचा, और यह क्या ! अचानक उसकी दृष्टि अपनी छवि से भटककर शीशे में प्रतिबिंबित सड़क के दूसरे किनारे पर पड़ी तो वह चिहुंक गया । उस पार से तीन हिजडे़ अपना थैला-ढोलक संभाले उसी की तरफ़ चले आ रहे थे । तेज़ चलने की कोशिश में उन्होंने लगभग घुटनों तक साड़ियां उठा रखी थीं।वह घबरा गया, फ़िर अपना थैला उठाकर सड़क पर बहती भीड़ को चीरता हुआ लगभग दौड़ता चला गया । वह आतंकित था और उन तीनों से दूर चला जाना चाहता था। पीछे उसने उनका चिल्लाना सुना। घबराहट में वह उसी बस-स्टाप पर पहुंच गया था, जहां कुछ देर पहले ही बस से उतरा था । चलने के लिए तैयार खड़ी बस में वह चढ़ गया और पिछली खिड़की से बाहर झांककर देखा तो उन तीनों की एक झलक मिली ।
-‘भैया, देखो हिजड़ा !’ एक छोटी बच्ची सडक पर चिल्लाई ।
-‘वह हिजड़ा नहीं, हिजड़ा है । देखा नहीं, बिलकुल आंटी जैसी लग रही थी ।’ भाई ने किसी आंटी से उसकी साम्यता की कल्पना करते हुए समझाने के अन्दाज़ में कहा ।
-‘चुप्प !’ औरत ने चीखकर बच्चों को चुप कराया । उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया था।
बस तीस-पैंतीस मीटर तक आगे बढ़ गयी तो जैसे उसकी जान में जान आई ।
पिछले दो महीनों के दौरान हिजड़ों के उस समूह से यह उसका दूसरा टकराव था । पहला टकराव पिछले महीने कल्याण स्टेशन पर तब हुआ था, जब वह ट्रेन में झाडू़ लगाने वाले बच्चों के साथ सीढ़ियों पर बैठा था और ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। वे तीनों जाने कब और कहां से एकाएक प्रकट हो गए थे । वे उटपटांग सवाल पूछ रहे थे और उसके लिए बहू, खसम, नानी, मौसी जैसे शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। पुरुषों के अन्दाज़ में वे उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए छेड़-छाड़ कर रहे थे । खींच-तान में उसका थैला सीढ़ियों से लुढ़ककर प्लेटफ़ार्म पर जा गिरा था। उसकी साड़ी की तारीफ़ करते हुए जब एक हिजडे़ ने अन्दर तक हाथ डाल दिया था तो वह इतनी ऊंची आवाज़ में चीखा था कि तीनों हतप्रभ रह गए थे और बच्चे डरकर अपना-अपना झाडू लेकर दूर हट गए थे । जब तक वहां कुछ लोग जमा होते, वह उन तीनों के चंगुल से छूटकर तेज़ी से अपने थैले की ओर लपका था और पटरी फ़लांगते हुए स्टेशन से बाहर निकल गया था । पीछे तीनों हाथ नचा-नचाकर तालियां बजा रहे थे और हंस रहे थे.
आज भी वह बाल-बाल बचा था ।
वह लोकल ट्रेन से कुर्ला पहुंचा, जहां से यू.पी.-बिहार की दिशा में जाने वाली ट्रेन पकड़ी जा सकती थी। उसका कोई निश्चित गंतव्य नहीं था । शाम के चार-साढे़-चार बजे तक ट्रेन जहां तक का सफ़र तय करती, बस वहीं तक जाना था और रात के दस-साढे़-दस बजे तक अपनी झोपड़-पट्टी में वापस लौट आना था। पिछले दिनों के अनुभवों ने उसे बता दिया था कि मुम्बई की शिराओं में बहने वाला खून यू.पी.-बिहार का है और हिजडों-भिखारियों को देने वालों में ज्यादा संख्या भी वहीं के निवासियों की होती है। फ़िर उस रूट पर चलने वाली ट्रेनों में वहां के लोग ज़्यादा नहीं होंगे तो क्या गुजराती-मराठी होंगे !
दरभंगा एक्सप्रेस की जनरल बोगी के शौचालय के पास कुछ देर रुककर वह मुसाफ़िरों को परखता रहा, फ़िर जब ट्रेन आगे सरकी तो थैले से छोटी-सी ढोलक निकालकर गले में लटका ली और कारीडोर में आकर बजा-बजा नाचने-गाने लगा। खिड़की के पास गोद में फ़िल्मी पत्रिका रखे बैठे युवक की आंखों में अपने प्रति दिलचस्पी के भाव देखकर हिजडे़ ने निचला होंठ चुभलाकर एक आंख दबाई। युवक हंस पड़ा। हिजडे़ ने इठलाते हुए कमर लचकाई और ताली बजाकर अपनी हथेली उसके सामने फ़ैला दी-‘अब तड़पा मत मेरे राजा, दे दे ।’ युवक ने अप्रसन्नता से उसे देखा, फ़िर तिरस्कार करता हुआ खिड़की से बाहर झांकने लगा । पीछे सरकते प्लेटफ़ार्म पर दो सुंदर और ज़वान आधुनिकाएं ट्रेन के साथ-साथ तेज़ी से चलने की कोशिश कर रही थीं और आगे जा चुकी किसी बोगी को इंगित करके विदाई की मुद्रा में हाथ हिला रही थीं । उनकी आंखों में विछोह के आंसू और होठों पर विदाई देती नकली मुस्कान थी। युवक उन्हें ही देख रहा था । पलभर के लिए हिजडे़ का ध्यान भी उनकी ओर चला गया, फ़िर युवक का कंधा छूकर दीनता से बोला-‘दे न, सेठ ।’
-‘हट, नईं तो एक देवेगा कान के नीचे।’युवक ने भड़ककर दांत पीसते हुए कहा, फ़िर बाहर झांकने लगा।
-‘नाराज़ क्यूं हो रहेला, सेठ । कमा के मुलुक जाता है। कुछ दान-पुन्न तो कर।’ हिजडे़ ने सकपकाहट और निराशा मिश्रित स्वर में कहा और आगे बढ़ गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था। हिजड़ा कहीं औरत की बराबरी कर सकता है !
ऊपर की सीट पर पीठ के बल लेटा अधेड़ हथेली पर ठुड्डी टिकाए हिजडे़ को देख रहा था । जब हिज़डे़ ने उसकी ओर देखा तो उसने आंखें बंद कर लीं। उसने ताली बजाकर उसे छुआ, जैसे डरते-डरते जगा रहा हो ।
-‘क्या है, बे?’ अधेड़ ने डपट दिया।
-‘अब्बी सोएंगा तो रात में क्या करेंगा, सेठ !’ वह दांत निपोरकर बोला। अधेड़ ने करवट बदलकर आंखें बन्द कर लीं। निचली सीट पर बैठे बारह-तेरह वर्षीय लड़के के चेहरे पर उत्सुकताभरी मुस्कान थी। हिज़डे़ के मन में अचानक ही स्नेह जाग उठा। लड़के के गाल पर धीरे से चुटकी काटकर बोला-‘खूब पढ़ने-लिखने का मुन्ने और बड़ा आदमी बनने का।’ लडके का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसने असहाय दृष्टि से पिता की ओर देखा। क्षुब्ध पिता ने हिजडे़ को धक्का देकर कहा-‘माफ़ कर, जा यहां से’ और दो रुपए का सिक्का थमा दिया।
यही उसकी दिनचर्या थी।
आधे घंटे बाद वह स्लीपर क्लास बोगी में था और शाम को पांच बजे मनमाड स्टेशन की सीढ़ियों पर दो कुत्तों और एक पगली औरत के पास बैठा अपनी कमाई गिन रहा था। उसने कम-से-कम तीन सौ लोगों के सामने हाथ पसारे थे, गीत गाए थे, तालियां बजाकर ठुमके लगाए थे। ज़्यादातर लोगों ने उसकी तरफ़ ध्यान तक नहीं दिया था। तीस-चालीस लोगों ने एक रुपए से दस रुपए तक दिए थे। चार-पांच लोगों ने अश्लील शब्द कहते हुए इशारे किए थे। दो-तीन लोगों ने नितंबों और स्तनों पर हाथ फेरा था। एक आदमी ने ‘बीस रुपए ले लेना’ कहकर दस मिनट के लिए टायलेट में चलने के लिए कहा था। अपनी बीवी के साथ सफ़र करते एक फ़ौज़ी ने उसे धक्के मारकर बोगी के दरवाज़े तक पहुंचा दिया था। दो पुलिसवालों ने हमेशा की तरह उसकी कमाई में से पचास रुपए साधिकार चूस लिए थे।
रात को दस बजे वह कामायनी एक्सप्रेस से वापस कुर्ला पहुंचा। उस समय तक उसके पास कुल मिलाकर दो सौ पन्द्रह रुपए बचे थे। वहां से लोकल ट्रेन पकड़कर दादर, फ़िर बस से अपनी झोपड़पट्टी में पहुंचा।
सतर्क दृष्टि से चारों तरफ़ देखता हुआ वह अपने झोपडे़ के पीछे से गुज़रती रेलवे-लाइन के पास, नाले के किनारे उगी झाड़ियों में चला गया। अन्धेरे में उसे कोई देखता तो यही समझता कि झोपड़पट्टी की कोई औरत शंका-निवृत्ति के लिए गई होगी।
धूल, धुएं और दुर्गंध से प्रदूषित मुम्बई के आसमान में, इमारतों के ऊपर मटमैला चांद था, बहते नाले की दुर्गंधभरी आवाज़ थी और झोपड़पट्टी से जाने-पहचाने बेवड़ों के चीखने-चिल्लाने, औरतों के लड़ने-झगड़ने और बच्चों के रोने के स्वर यहां झाड़ी तक आ रहे थे। वह साड़ी खोलने लगा।
उसने अपने झोपडे़ की तरफ़ देखा। पिछली दीवार की दरारों से रोशनी की लकीरें निकल रही थीं।–‘सुबह बल्ब बुझाना भूल गया था, शायद।’ उसने सोचा।
गुज़रे हुए पागल दिन
यूं तो जो कुछ वह कर रहा था, उसमें कदम-कदम पर समस्याएं थीं, पर वास्तविक समस्या उसके अकेले होने की थी। उसने देखा था कि हिजड़ों के छोटे-से-छोटे समूह में भी कम-से-कम दो हिजडे़ तो ज़रूर होते थे। दूसरी समस्या स्वयं हिजडे़ थे, जिन्हें वह दूर से भी देख लेता तो कांप जाता और उसे लगता कि वह उनके घर में सेंध लगा रहा था और पकडे़ जाने पर सिर्फ़ बुरा ही हो सकता था। दो महीने पहले तक उसके सामने स्पष्ट नहीं था कि असली हिजड़ों से कभी आमना-सामना हो जाने पर उसके प्रति उनका व्यवहार कैसा होगा औरे खुद को वह उनके सामने कैसे प्रस्तुत करेगा। उनकी निर्लज्जता के नमूने उसने देखे-सुने थे। वे अश्लीलतम गालियां दे सकते थे, शायद मार-पीट भी कर सकते थे औरे सबसे भीषण बात तो यह होती कि उसके हिजड़त्व पर संदेह होने पर वे बीच सड़क पर या ट्रेन में या प्लेटफ़ार्म पर, कहीं भी उसके कपडे़ खींचकर नंगा करने में संकोच न करते। बाद की घटनाओं ने उसकी आशंका को सही सिद्ध किया था। निश्चित रूप से वे तीनों उसकी असलियत जान चुके थे। ऐसी स्थिति में वह अगर पुलिस के फेरे में पड़ जाता तो कानून की किसी-न-किसी धारा के तहत जेल भी पहुंच सकता था। एक समय मेहनतकश रहे आदमी के लिए अपमान की इससे बड़ी और कोई बात सम्भव न थी। उसे गहराई से महसूस होने लगा कि अपनी किस्मत में यह अपमान वह स्वयं लिख चुका था। आर्थिक तंगी ने पहले तो उसके व्यक्तित्व को हिजड़ा बनाया, फ़िर उसने स्वयं औरतों के कपडे़ पहनकर छद्म हिजड़त्व स्वीकार कर लिया था।
हिजड़ों की कमी थी क्या उसके आस-पास ! जब भी वह अपने आस-पास देखता, हर आदमी में उसे हिजड़ा नज़र आता। औरतें भी उसे हिजड़ा लगतीं...अपनी बीवी भी और दोनों बच्चे भी। हिजड़ा माने मज़बूर, चाहे आदमी हो या औरत या फ़िर बच्चे। उसे लग रहा था कि हिजड़ा एक व्यापक तत्त्व है। कितनी अज़ीब बात थी कि वह अब तक अपनी और अपने आस-पास के लोगों की असलियत से अनजान था।
झोपडे़ में चटाई पर लेटा-लेटा वह बीवी को याद कर रहा था, बच्चों को याद कर रहा था, पूर्वी उत्तर-प्रदेश के अपने उस गांव को याद कर रहा था, जिसे उसने पिछले आठ वर्षों से नहीं देखा था। बीवी-बच्चों को उसने अपने सास-ससुर के पास पहुंचा दिया था, जो नासिक मे कांदा-बटाटा और भाजी की दुकान चलाते थे, जिससे कि वह नई नौकरी का इंतज़ाम कर सके...नौकरी! पिछले आठ वर्षों से लगभग तीन महीने पहले तक वह आटे की जिस चक्की पर काम करता आया था, उसकी आमदनी दिनों-दिन कम होती जा रही थी। बाज़ार में बड़ी-बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियों ने एक किलो और पांच किलो के रंग-बिरंगे पैकटों में आटा बेचना शुरु कर दिया था, जिससे बहुत-से बंधे-बंधाए ग्राहक गेहूं खरीदने और पिसवाने की झंझट से छुटकारा पा गए थे। बाज़ार में आ रहे बदलाव की उसपर भारी मार पडी थी। चक्की की विधवा बूढ़ी मालकिन ने पहले तो उसकी पगार घटा दी थी, फ़िर कोढ़ में खाज़ जैसी स्थिति तब पैदा हो गई जब बु्ढ़िया का भतीजा बुरहानपुर से अपनी बुआ की देख-भाल करने पहुंच गया था। जब भतीजे ने चक्की की बागडोर संभाल ली और बतौर सहायक ग्राहकों के घर से गेहूं लाकर पीसने और पहुंचाने जैसे काम करने लगा तो उसे आसन्न संकट की पदचापें सुनाई पड़ी थीं और उसका मन मुरझाने लगा था। भतीजा जब चक्की के काम में पक्का हो गया तो आठ साल पुराने नौकर को चालू महीने के पन्द्रह दिनों की पगार दयानतदारी से देकर उसकी छुट्टी कर दी गई थी। वह बुढ़िया के सामने गिड़गिड़ाया था, पगार सात सौ रुपए से घटाकर पहले तो छह सौ रुपए, फ़िर पांच सौ रुपए कर देने की भी बात कही थी, पर जब वह नहीं मानी तो पन्द्रह-बीस दिन रुक जाने के लिए भी कहा था, पर बुढ़िया अपने निर्णय पर अडिग रही थी। अब तक वह खडे़ पैर बेरोज़गार होने की कल्पना से बचता आया था। कभी सोचा भी न था कि ‘बेटा-बेटा’ कहकर स्नेह दिखाने वाली बु्ढ़िया एकाएक ही इतनी बेरहम हो जाएगी। साढे़ तीन सौ रुपए लेकर जब वह सड़क पर आया था तो उसके पैरों ने जैसे आगे बढ़ने से इनकार कर दिया था। वह खुद से पूछ रहा था कि अब वह क्या करेगा। आठ साल पहले मुम्बई में कदम रखते ही उसे चक्की चलाने का यही पहला काम मिला था। उस एकरस काम में वह इतना रम गया था कि और कुछ सीख भी नहीं पाया था।
हमेशा की तरह उस दिन भी वह रात को नौ बजे अपने झोपडे़ में पहुंचा था। बीवी झोपडे़ के दरवाज़े के सामने बैठी थी और आलू छीलते हुए पड़ोसन से बातें कर रही थी। अंदर से बच्चों के पढ़ने की आवाज़ें आ रही थीं। बिना कुछ कहे वह अंदर जाकर चटाई पर लेट गया था। वह न तो बीवी को नौकरी छूटने की बात बता पाया था, न रोज़ की तरह बच्चों के प्रति स्वाभाविक स्नेह ही दिखा पाया था। कितनी समझदार थी उसकी पांच साल की बेटी! उसका सिर सहलाते हुए बोली थी-‘सिर में दर्द है क्या, पापा? मम्मी, पापा के सिर में तेल लगा दो।’
आने वाले कुछ दिनों तक वह हमेशा की तरह सुबह सात बजे बीवी के हाथ में बीस रुपए रखकर, पालीथिन के बोरे को काटकर बनाए गए थैले में दो डिब्बों वाला अल्युमोनियम का टिफ़िन-कैरियर लेकर निकलता और पार्क में बैठकर या सड़कों पर भटककर पूरा दिन बिता देता! बेरोज़गारी की यातना से आक्रांत उसका दिमाग जैसे सुन्न हो गया था...अचानक एक विचार से वह चिहुंक उठा--वह फेरीवाला बन जाता तो भी अच्छा होता! मन में इस विचार के आते ही उसे हर जगह मूंगफ़ली, भुने चने, आईस-क्रीम, भेलपूरी, खारी, फ़ल, चाय, रस्क वगैरह बेचते बहुत से फ़ेरीवाले दिखाई पड़ने लगे थे। वह हैरान था कि इतने लोग अब तक कहां छिपे थे। कभी वह उनमें से किसी के पास जा खड़ा होता और ग्राहकों से लेन-देन करते देखता। किसी फ़ेरीवाले से पूछता-‘ये कितने रुपए का सामान है...शाम तक कितना बिक जाएगा...कितना कमा लेते हो...ये टोकरी कहां से खरीदी?’ जब कोई फ़ेरीवाला नाराज़ होकर पूछता-‘लेने का है, क्या?’ तो वह दीन-हीन-सा वहां से हट जाता और दूसरे के पास जा खड़ा होता। उन्हें देखकर वह कल्पना नहीं कर पाता कि एक दिन वह भी उन्हीं की तरह सिर पर सामान रखकर आवाज़ लगाता सड़क-दर-सड़क, मोहल्ला-दर-मोहल्ला, चाल-दर-चाल, पार्क-दर-पार्क, पटरी-दर-पटरी भटकेगा। अनजाने में एक गहरी निराशा रेत की तरह झर-झरकर उसके मन की तलहटी पर जमा होती जा रही थी, जिसके नीचे विचार-शक्ति और भावनाएं धीरे-धीरे दबती जा रही थीं।
एक दिन जब उसने पाया कि उसकी ज़ेब में सिर्फ़ एक सौ नब्बे रुपए बचे रह गए थे तो एकाएक ही उसकी आंखों के सामने विकराल गरीबी झेलते परिवार का चित्र यथार्थ अनुभव की तरह चमक गया था। वह घबराया-सा दूकान-दर-दूकान भटकता हुआ नौकरी खोज़ने लगा था, पर सभी जगहों से उसे इनकार ही सुनने को मिला था। धीरे-धीरे ‘इदर में किदर रखा है काम’ उसके कानों में निरन्तर गूंजने लगा था। फ़िर भी जब निराशा का सामना करने के लिए मानसिक रूप तैयार होकर किसी दूकान की ओर कदम बढ़ाता तो जैसे उसके कानों में पहले ही कोई फुसफुसा देता-‘इदर में किदर रखा है काम’। दो दिनों की भटकन में वह ये शब्द इतनी बार सुन चुका था कि उसे भ्रम होने लगा कि वह मुम्बई की सभी दूकानों में काम खोज़ चुका था और अब आशा की कोई किरण न थी... थकान और पसीने ने भी उसे शारीरिक रूप से तोड़ना शुरु कर दिया था। उसके शरीर से आने वाली आटे की गन्ध न जाने कब खो गई थी और अब वह पसीने की दुर्गंन्ध महसूस करने लगा था। लेकिन कुछ तो करना ही है, यह सोचकर एक दिन दस-पन्द्रह दूकानों पर दरियाफ़्त करने के बाद एक दूकान से डेढ़ किलो मूंगफ़ली और कुप्पी बनाने के लिए पुराने अखबार खरीदकर दूर-दराज़ की चालों में आवाज़ लगाता हुआ घूमने लगा था। शाम होते-होते जब सारी मूंगफ़ली बिक गई थी और लाभ के रूप में उसकी ज़ेब में नौ रुपए आ गए थे तो उसे लगा था कि उसने चिन्ता का एक बहुत बड़ा सागर पार कर लिया था। अगले दिन उसने दो किलो मूंगफ़ली खरीदी थी। उस दिन उसने बीस रुपए कमाए थे। एक हफ़्ते बाद ही उसे लगने लगा था कि जी-तोड़ मेहनत करने के बाद भी वह पच्चीस रुपयों से ज्यादा नही कमा सकता था। फ़िर एक दिन जब ज़ेब में लाभ के बीस रुपए ओर थैले में लगभग दो सौ ग्राम मूंगफ़ली बची रह गई और शाम ढलने लगी तो वह झोपडे़ में लौट आया था। उसे इतनी जल्दी आया देखकर बीवी खुश हुई थी। जब उसने बीवी के हाथ में मूंगफ़ली की कुप्पी थमाई तो वह हैरान रह गई थी। आज से पहले मूंगफ़ली या शौकिया खाने लायक कोई चीज़ लेकर वह घर नहीं आया था।
-‘कितने की मिली?’ उसने पूछा था, होठों पर मुसकान और आंखों में चिन्ता थी।
-‘बहुत सस्ती, सिर्फ़ चार रुपए की है। उसके पास इतनी ही बची थी, इसलिए सस्ती दे दी।’ उसने सफ़ाई दी थी और सूखी-सी हंसी हंस पड़ा था।
वह चटाई पर अधलेटा-सा बीवी-बच्चों को रुचिपूर्वक मूंगफ़ली फ़ोड़ते-खाते देखता रहा था। उस क्षण कितना सुखी था, वह।
रात को बच्चों को सुलाने के बाद दोनों आलिंगनबद्ध हुए थे तो कांपती-फुसफुसाती आवाज़ में उसने पन्द्रह दिन पहले नौकरी छूटने और अब तक मूंगफ़ली बेचने की बात बताई थी। क्षणभर के लिए बीवी की बाहें शिथिल हो गई थीं, फ़िर उसने उसे जकड़ लिया था, जैसे उसके कहीं दूर भाग जाने के भय से आक्रांत हो उठी हो। वह बार-बार उसे भींच लेती और चेहरे पर, छाती पर, गरदन में चुंबनों की बौछार-सी कर देती और कभी उसके सीने में चेहरा गड़ाकर आ पडे़ क्षण से मुक्ति पाने की कोशिश करने लगती। उसे जब अपने होठों के बीच बीवी के आंसुओं का खारापन महसूस हुआ था तो वह भी आवेग न रोक सका था और उसकी आंखों से भी आंसू ढुलक पडे़ थे। वह भी उसकी मन:स्थिति तुरन्त समझ गई थी। उसने उसके चेहरे पर हाथ फेरा था, फ़िर ‘छि:’ कहकर भींच लिया था। मन का आवेग कब देह के आवेग में बदल गया था, दोनों ही नहीं जान पाए थे। वह उसके ऊपर चली आई थी, गरदन और गालों पर दांत चुभा रही थी, होंठ और जीभ से उसका चेहरा गीला कर रही थी। साझा दुख उन्हें कहीं दूर भाग जाने के लिए प्रेरित कर रहा था और दोनों एक दूसरे की तरफ़ भाग रहे थे।
दाम्पत्य जीवन के शुरुआती दिनों के बाद इतना सघन चरम सुख उन्होंने कभी नहीं पाया था।
अगली रात खाने के बाद वह झोपड़पट्टी में दिखाई जा रही सार्वजनिक वीडियो फ़िल्म का शो देखने गया था। फ़िल्म पुरानी थी। एक हिजड़ा था उसमें, जिसने खूब हंगामा मचाया था और हीरो ने अपनी प्रेमिका को बचाने के लिए ज़बर्दस्त संघर्ष किया था। फ़िल्मों के बारे में उसे ज़्यादा कुछ नहीं पता था। पास बैठे आदमी ने जब उसे बताया कि वह असल हिजड़ा नहीं, बल्कि सदाशिव नाम का ‘विलेन’ था तो वह हैरान हुआ था। रात को जब बीवी-बच्चे सो रहे थे तो उसके दिमाग पर ‘महारानी’ नाम का वह हिजड़ा छाया हुआ था। वह लेटा-लेटा याद करने की कोशिश कर रहा था कि असल ज़िन्दगी में उसने हिजड़ों को कब-कब, कहां-कहां और क्या-क्या करते देखा था। उसे याद आए असली सोने की ज़ंजीरें पहने हिजडे़, उनके ब्लाउज़ से झांकते सौ और पचास रुपयों के नोट। दिनभर में सौ-दो सौ रुपए कमा लेना तो उनके लिए जैसे मामूली बात थी। ताली बजाकर कमर मटकाने, नाचने और आधे-अधूरे गीत गाने के अलावा जैसे उनका और कोई काम ही न था और सिर्फ़ इतना-सा करने पर सौ-दो सौ रुपए ! उसकी अपनी कमाई से सात-आठ गुना ज़्यादा... ! आखिर मर्द से वे किस तरह अलग होतें हैं! फ़िर जो ‘असल’ अंतर होता है, वह दीखता भी कहां है! इतना तो वह भी कर सकता है... यही वे क्षण थे जब उसने दुरुस्त होशोहवास में हिजडा बनने का निर्णय लिया था। उसे खुशी हुई थी कि उसके बाल इतने लम्बे हो चुके थे कि वह उन्हें रबर-बैंड से बांधकर छोटी-सी चोटी बना सकता था। चेहरे पर भी बहुत कम बाल थे...पर सिर्फ़ इतना काफ़ी न होता। वह रूप कहां बदलता? छोटे-से झोपडे़ में यह सम्भव न था...हां, अगर बीवी-बच्चों को सास-ससुर के पास नासिक भेज दे तो सम्भव था...नहीं, तो भी कठिनाई थी। सुबह-शाम निकलते-लौटते वह पड़ोसियों की नज़रों से बच नहीं सकता था। यह उसका इतना निजी मामला होता कि किसी को हर्गिज़ भी शामिल नहीं किया जा सकता था। हां, झोपडे़ के पीछे नाले के पास वह अपना रूप बदल सकता था, जहां कोई नहीं जाता था। वहां अक्सर मालगाड़ी के डिब्बे खडे़ रहते थे।
तीन दिनों बाद उसने भोली-भाली बीवी को समझा-बुझाकर, माली तंगी का वास्ता देकर बच्चों सहित नासिक पहुंचा दिया था, जहां सास-ससुर दो कमरों के घर में रहते थे। उसने कहा था-‘कोई अच्छा-सा काम मिलते ही हफ़्ता-दस दिन में तुम लोगों को लेने आ जाऊंगा।’
अगले दिन जब वह वापस लौटा था तो खाली झोपड़ा जैसे उसे अंदर आने से रोक रहा था। उसकी ज़ेब में सिर्फ़ पचास रुपए बचे थे। चटाई पर लेटा हुआ वह बहुत देर तक झोपडे़ की रिक्तता में सघन उदासी महसूस करता रहा था। उसे लग रहा था कि उसने हिजड़ा बनने के निर्णय लेकर बहुत बड़ी बेवकूफ़ी की थी। बीवी-बच्चों के बिना आने वाला हर क्षण असहनीय और भारी होता लग रहा था। इससे पहले शायद वह इस झोपडे़ में कभी क्षणभर के लिए भी अकेला नहीं रहा था। क्या ज़रूरत थी ऐसा करने की...मूंगफ़ली बेचकर वह उतना तो कमा ही लेता, जितना उसे चक्की की मालकिन दे रही थी...हिजड़ा बनने की योजना कितनी बेवकूफ़ी की थी, यह बात उसे पहले क्यों न समझ में आई। लेकिन अब क्या हो सकता था! अब अगर बीवी-बच्चों को वापस लाना भी चाहे तो रुपए कहां थे!
उसका दिल बैठने लगा।
फ़िर दिल को मज़बूत करके कोने में रखा टिन का बक्सा खोलकर जब उसने बीवी के वे कपडे़ निकाले, जिन्हें वह कभी-कभी ही पहनती थी तो उसका दिल धड़क उठा था। पिछले एक महीने में उगी नाम-मात्र की दाढ़ी-मूछ साफ़ करके उसने साबुन से रगड़-रगड़कर चेहरा धोया था, फ़िर बालों को पीछे करके रबर-बैंड से बांध लिया था। ब्रा, ब्लाउज़, पेटीकोट और साड़ी पहनकर शीशे में देखा तो एकाएक खुद को पहचान नहीं पाया था। पुरानी लुंगी के टुकड़ों के गोले बनाकर ब्रा में सरका दिए थे, माथे पर लिपस्टिक से गोल बिन्दी बनाई थी और होंठ रंग लिए थे। अब वह हिजड़ों से कहीं ज़्यादा औरत लग रहा था। उसके शरीर में मीठी सनसनी दौड गई थी। बीवी की दैहिक निकटता की तीव्र कामना से वह भर उठा था और शरीर में गर्म रक्त का प्रवाह अनुभव कर रहा था। अफ़सोस कि बीवी नासिक में थी। उस दौरान उसे झोपड़पट्टी की कई औरतें याद आई थीं, जो कभी-कभार उससे बातें कर लेती थीं। उसे पता था कि तृष्णा के इस क्षण में उसे कोई औरत न मिलने वाली थी।
उसने फ़िर शीशे में देखा---एक हिजड़ा उसकी ओर देख रहा था।
ससुराल में बीती रात और रात की कहानी
एक हफ़्ता बीतने के बाद से हर दूसरी सुबह झोपड़पट्टी के पी.सी.ओ. पर बीवी का फ़ोन आने लगा था—‘जल्दी आकर ले जाओ’। कभी बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की बात करती तो कभी कहती कि आखिर कब तक वह मां-बाप के पास रहेगी। जब वह अपनी व्यस्तता और परेशानी का हवाला देता तो कहती कि बच्चों को लेकर वह खुद ही चली आएगी। जब वह कडे़ स्वर में मना करता तो सुबकने लगती। फ़िर मुलायम स्वर में समझाता—‘तू समझती नहीं है! एक फ़ैक्टरी में वाचमैनी का काम मिलने वाला है। बस, एक हफ़्ते और रुक जा।’ इस तरह आश्वासन देते-देते दो हफ़्ते बीत गए थे। इस बीच उसके पास डेढ़ हज़ार रुपए जमा हो गए थे और मन में माली हालत सुधरने की उमंग भर गई थी। उसने तय किया था कि वह महीने में दो-तीन बार नासिक जाया करेगा और हर बार बीवी को पांच-छह सौ रुपए दे दिया करेगा। वहीं के किसी स्कूल में बच्चों का नाम भी लिखवा देगा। यही ठीक रहेगा! पहले तो सात सौ रुपए में महीने भर का खर्च चल जाता था। अब तो वह हज़ार-बारह सौ रुपए दिया करेगा, फ़िर वहां सास-ससुर की रसोई में खाना बनेगा तो सस्ता ही पडे़गा।
फ़िर एक शाम वह नासिक जा पहुंचा था, बीवी बच्चों के लिए कपडे़ और मिठाई का डिब्बा लेकर।
शाम का समय बच्चों के साथ हंसते-बतियाते बीत गया था। वह सिर्फ़ दिखावे के लिए बात-बात पर हंस रहा था, लेकिन भीतर कोई चीज़ बिलकुल स्थिर थी और रात की प्रतीक्षा कर रही थी। बरामदे में एक बार बेटी ने अपने नाना-नानी के बारे में कोई ऐसी मज़ाकिया बात कही थी कि वह जैसे नियंत्रण खोकर, हाथ नचाकर, ताली बजाकर हंस पड़ा था। बेटी ने उसे चौंककर देखा था। ताली की ऊंची आवाज़ सुनकर बीवी भी बाहर चली आई थी। बेटी ने कहा था-‘मम्मी, पापा ने ताली बजाई...पहले तो आप ताली नहीं बजाते थे, पापा!’
-‘ठीक है, भाई, अब नहीं बजाएंगे।’ कहकर वह खिसियाया-सा कमरे में घुस गया था। उसे डर लगने लगा था कि उसका शरीर बेकाबू होकर कहीं नाचने न लग जाए। पिछले दिनों का अभिनय अब सिर्फ़ अभिनय ही नहीं रह गया था, बल्कि उसके व्यक्तित्व में कहीं गहराई से समा गया था...हाथ, कमर और आंखों की मांसपेशियो पर जैसे अब उसका कोई नियंत्रण नहीं रह गया था, सब जैसे स्वतंत्र होकर काम करने लगी थीं। बात-बात पर ताली का बज जाना, कमर का अचानक हिल जाना, दांतों का निपोरा जाना, आंखों का मटकना….सब जैसे अपने आप होने लगा था। और तो और, उसकी चाल भी बदल गई थी। ‘ये मुझे क्या हो गया, भगवान,’ उसने मन ही मन कहा था और सावधान हो गया था।
रात को बीवी ने उसे अपने पास खींचते हुए पूछा था-‘इतने दिनों बाद सुध ली है!’
-‘दस दिन से एक फ़ैक्टरी में वाचमैनी शुरु की है, शाम के सात बजे से सुबह छह बजे तक। डेढ़ हज़ार दे रहे हैं...’ उसने बात बदलने की कोशिश की थी।
-‘यह तो बहुत है!’ वह हैरान हुई थी।
-‘लेकिन ज़िन्दगानी गड़बड़ हो गई है।’
-‘चलो, जाने दो। परिवार से दूर रहना अच्छा लगता है, क्या?’
-‘कोई दूर रहकर खुश रह सकता है!’ अफ़सोसभरे स्वर में कहते हुए उसने उसके गाल से मुंह चिपका दिया था-‘काट लूं?’
-‘ऊं...हां, लेकिन धीरे से। निशान न पडे़।’ कहकर वह उससे चिपक गई थी। उसके शरीर से सुगन्ध आ रही थी। शायद कोई क्रीम या पाउडर लगा कर आई थी। बालों में चमेली के फूलों की वेणी भी थी। अचानक वह उठा तो उसने पूछा था- ‘कहां...?’ दीवार पर टंगी पैंट की ज़ेब में से उसने अलग से गिनकर रखे पांच सौ रुपए निकालकर बीवी को दिए थे- ‘ये पिछले महीने की दस दिनों की पगार है। रख ले। मेरे पास और हैं।’
-‘हम लोग नहीं जाएंगे क्या?’
-‘कैसे जाएगी?’ उसकी कमर अनियंत्रित-सी होकर हिली थी, जैसे इनकार कर रही हो-‘मुझे रातभर फ़ैक्टरी में रहना पड़ता है।’
-‘ये ठीक नहीं है। आखिर कब तक....?’
-‘इतना समझ ले कि तुम लोग गए तो मै नौकरी नहीं कर पाऊंगा….यहां महीने में दो-तीन बार आया करूंगा...दोनों को यहीं किसी स्कूल में भरती करा दे।’ उसने निर्णायक स्वर में कहा था। वह चुप हो गई थी। वह उसके पास जा लेटा था। कुछ देर बाद लम्बी सांस छोडकर उसके वह उसके बालों में उंगली फ़िराने लगी थी-‘बाल क्यों नहीं कटवा लिए?...तुम बहुत बदल गए हो, जी।’
-‘नई नौकरी है, न।’
-‘वो बात नहीं...’ वह कुछ कहने वाली थी, लेकिन चार होठों के बीच उसकी आवाज़ घुटकर रह गई थी।
दूसरे कमरे में बच्चों की नानी ने कहानी खत्म करते हुए कहा था-‘किसी राजकुमारी की वैसी शादी नहीं हुई थी। देश-दुनिया से लोग आए थे और रातभर खाते-पीते रहे थे।’
-‘अच्छी थी।और सुनाओ।’
-‘अब सो जाओ।’
-‘नहीं नानी, बस एक..।’ लडके ने ज़ोर देकर कहा था।
-‘अच्छा, एक और..., फ़िर सोना पडे़गा।’
-‘अब कब आओगे?’ बीवी ने पूछा था।
-‘अभी तो हूं, न। इधर खिसक।’
-‘सोना नहीं है! चार बज रहे हैं।’
-‘वो तो रोज़ बजते हैं।’
-‘बताया नहीं तुमने!’वह पास खिसक आई थी।
-‘अगले हफ़्ते।’ उसने कहा था।
लेकिन वह दो हफ़्ते बाद आया था। इस बार भी उसने एक हफ़्ते बाद आने का वायदा किया था....और तीसरा हफ़्ता चल रहा था।
आज की रात
-‘हां, सुबह बल्ब बुझाना भूल गया था।’ उसने खुद से कहा और थैला संभाले झोपडे़ के सामने चला गया। दरवाज़े के सामने सोए कुत्ते को उसने दुरदुराकर भगाया। अचानक दरवाज़ा खुल गया। उसकी नज़र पहले बीवी के चेहरे पर पड़ी, फ़िर अन्दर सोए बच्चों पर।
-‘तू कब...क्यों चली आई?’ उसने अटकते हुए पूछा-’मैने कहा था न कि वहीं रह। मैं तो कल ही आने वाला था।’
वह चुप रही। बेशक वह नाराज़ थी, उससे।
थैला उसने दरवाज़े के पीछे रख दिया। बीवी ने थैले की तरफ़ ध्यान नहीं दिया, तो वह कुछ निश्चिंत-सा हो गया।
-‘हाथ-मुंह धो लो, खाना लगाती हूं।’ वह बोली।
वह ढाबे से खाकर आया था, इसलिए बहुत बेमन से खा पाया।
जब वे बत्ती बुझाकर लेटे तो बीवी ने रुलाई रोकते हुए कहा-‘ये तुम क्या बन गए हो, जी! वे तीनों तुम्हारे पीछे क्यों पडे थे?’
-‘क्या!’ वह घबरा गया। अंधेरे में उसकी आंखें फैल गईं और चेहरा विकृत हो गया। माथेपर पसीना चुहचुहा आया।
वह फफककर रो पड़ी।
उसकी सांसे तेज़ हो गईं। एक गहरे कुएं में वह गिर रहा था। अंधेरा और घना हो गया था। उसके शरीर से कपडे़ अलग हो रहे थे। हे भगवान, यह एक बुरा सपना हो… सच न हो… बस एक बुरा सपना ही हो...’ वह बुदबुदा रहा था।
---इति---
राजेश प्रसाद
केन्द्रीय विद्यालय
ढेंकानाल
पत्रालय-मंगलपुर (वाया-भापुर)
ढेंकानाल-759015,उडीसा; फ़ोन नं.9437012565\वाराणसी का फ़ोन नं.0542-2316418.
ई-मेल-psdrajesh@rediffmail.com, psdrajesh@gmail.com
रचना-काल:अक्तूबर, 2005.
Thursday, March 13, 2008
मधुशाला में
आज 73 साल बाद भी मधुशाला के शब्द..गीतात्मक रुबाइया मन पर जादू कर देती हैं ...यार लोग मना करते रहें , बीवी कसम देती रहे, पर अपन तो मदिरालय जाने के लिए तैयार रहते हैं ...क्या लिख गया बड़का वाला बच्चन ...
लालायित अधरों से जिसने हाय नहीं चूमी हाला,
हर्ष विकंपित कर से जिसने हां न छुआ मधु का प्याला
हाथ पकड़ लज्जित साकी का पास नहीं जिसने खींचा
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला॥
मदिरा आत्मा है, चाहे गन्ने की हो या अंगूर की या फ़िर चावल की ...आत्मा सदा समस्त पापों से मुक्त होती है ..मदिरा आदमी को बिल्कुल नंगा कर देती है ...सांसारिक मोह-माया से मुक्त कर देती है....रावण ने तो अपने ग्रन्थ में लिखा है कि जो मनुष्य मुक्ति का अभिलाषी हो, वह मदिरा पी पीकर, बेहोशी की अवस्था में यदि परमधाम चला जाए तो उसकी मुक्ति हो जाती है क्योंकि मरते समय वह सभी इच्छाओं से मुक्त होता है...अत: उसका पुनरागमन नहीं होता ....न विश्वाश हो तो महर्षि दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश देखिये...
इसी लिए सबसे बड़े वाले बच्चन मेरे प्रिय हैं...हाँ , कभी-कभी जब मधुशाला की उत्तरार्ध की रुबाईयाँ पड़ता हूँ तो लगता है ,प्रतीकात्मक भाषा में जीवन को ही मधुशाला कह कर बच्चन ने हमको बीच में
छोड़ दिया है ....
लालायित अधरों से जिसने हाय नहीं चूमी हाला,
हर्ष विकंपित कर से जिसने हां न छुआ मधु का प्याला
हाथ पकड़ लज्जित साकी का पास नहीं जिसने खींचा
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला॥
मदिरा आत्मा है, चाहे गन्ने की हो या अंगूर की या फ़िर चावल की ...आत्मा सदा समस्त पापों से मुक्त होती है ..मदिरा आदमी को बिल्कुल नंगा कर देती है ...सांसारिक मोह-माया से मुक्त कर देती है....रावण ने तो अपने ग्रन्थ में लिखा है कि जो मनुष्य मुक्ति का अभिलाषी हो, वह मदिरा पी पीकर, बेहोशी की अवस्था में यदि परमधाम चला जाए तो उसकी मुक्ति हो जाती है क्योंकि मरते समय वह सभी इच्छाओं से मुक्त होता है...अत: उसका पुनरागमन नहीं होता ....न विश्वाश हो तो महर्षि दयानंद का सत्यार्थ प्रकाश देखिये...
इसी लिए सबसे बड़े वाले बच्चन मेरे प्रिय हैं...हाँ , कभी-कभी जब मधुशाला की उत्तरार्ध की रुबाईयाँ पड़ता हूँ तो लगता है ,प्रतीकात्मक भाषा में जीवन को ही मधुशाला कह कर बच्चन ने हमको बीच में
छोड़ दिया है ....
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